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________________ ( ८८ ) कष्ट करणी मिथ्या थाय छे, निर्मळ ज्ञान वैराग्य योगेज दंभनी दु४ घाटी उल्लंघी शकाय छे. (५१) हे हृदय ! करुणा समान बीजो कोइ अमृतरस नथी, परद्रोह समान बनुं हालाहल झेर नथी, सदाचरण समान बीजो कल्पवृक्ष नथी, क्रोध समान कोई दावानळ नथी, संतोष उपरांत कोइ प्रिय मित्र नथी, अने लोभ समान कोइ शत्रु नथी. आमाथी युक्तायुक्त विचारीने तुजने रुचे ते आदर ! हितकारी मार्गज आदवो ए सद्विवेक पाम्यानुं सार छे. ( ५२ ) हे भाइ जो तुं निर्वाण सुखने वांछतो होय तो परम शान्तिरुपी प्रियानो आदर कर; केमके तेणी शील, श्रद्धा, ध्यान, विवेक, कारुण्य औचित्य, सद्बोध अने सदाचरणादिक अनेक गुण रत्नोथी अलंकृत छे. क्षान्ति - क्षमानुं सम्यग् सेवन कर्या विना कोइ कदापि मोक्षपद पामी शकेज नहिं . ( ५३ ) जे रागद्वेष अने मोहादिक दुष्ट दोषोथी सर्वथा मुक्त थइ, परमात्मपदने प्राप्त थया छे, अने जेमनुं वचन सर्व विरोधरहित छे, जे जगत् त्रयना निष्कारण बंधु छे, एवा प्ररम कारुणिक सर्वज्ञ पुरुषज शरण करवा योग्य छे. एवा आप्त पुरुषना वचन अनुसारे वदनारा सत्पुरुषो पण मोक्षार्थी सज्जनोए सावधानपणे सेवन करवा योग्यज छे.. ( ५४ ) ज्यां सुधी सुकृतवडें करेलो पूण्यनो संचय होचे छे, त्या सुधीज सर्व प्रकारनी अनुकूल सुख सामग्री मळी आवे छे, एम समजीने शुभ धर्मकरणी करवा मन सदोदित रहे तेम प्रमादरहित वर्तं . (५५) ज्यां सुधी दुष्कृत - करेलो पाप संचय व्होचेछे त्या सुधीज સર્વ પ્રારની પ્રતિષ્ઠવાળાં જારળ મઝાઁ આવે છે, મ સમીને पूर्व पापनो क्षय करवा उदित दुःखने समभावे सहन करवा पूर्वक
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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