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________________ (३५) आ संसार चक्रमा जीव अनंतशः जन्म मरणना असह्य दुःख सह्यां छतां हजी तेथी मन उद्विग्न थतुं नथी, अने पाप क्रियामां तो ते अहोनिश मग्नज रहे छे. (३६) अहो आकेला सांढनी परे चित्त स्वेच्छा मुजब निंद्य मार्गमा भन्या कर छे; पण चारित्र धर्मनी धुराने अने महाव्रतना भारने वहन करतुं नथी ! आज आत्मानी संसार चक्रमां बहु प्रकारे खराबी थाय छे. (३७) पूर्व पुण्ययोगे अनुकूल सामग्री मन्या छतां प्रमादना पशथी जीव कंइ पण आत्मसाधन करी शकतो नथी, तेज तेने संसारचक्रमा पुनः पुनः मम पड़े छे. (३८) जेणे संसार संबंधी सर्व दुःखनां मूळ कारणभूत क्रोध मान, माया अने लोभरूपी चारे कषायोने हठाववा प्रयत्न कयों नथी, ते बापडाए हाथमां आवेलु मनुष्यजन्मरूपी कल्पवृक्षनु अमृत 40 वारस्युज नथी. (३९) बाल्यवय क्रीडा मात्रमा, योवनवय विषयमागमा अने वृद्ध अवस्था विविध व्याधिना दुःखमा हारी जनारने सुकृतना अभाव परलोकमां कई पण सुख साधन मळी शकतुं नथी. (४०) जे द्रव्यना लोभथी जीव अनेक आकरा जोखममा उतरे छे, ते द्रव्यर्नु अस्थिरपणुं विचारीने संतोष वृत्ति धारवी उचित छे. (११) आ मनमर्कट मोह मैदिराना मदथी मत्त बन्यु छतु, अनेक प्रकारनी कुचेष्टा करवा तत्पर रहे छ; सत् समागमरूपी अमृत सिंचन विना मननु ठेकाणुं पडवू महा मुश्केल छ, सद्बोधथी केवाइने लांबा अभ्यासे ते पांसरु थाय छे. (४२)निर्मळ शीलवतधारी श्रावकने, परस्त्रीथी अने उत्तम चारित्रधारी साधुजनने सर्व स्त्रीथी निरंतर पेतता रहेवानी खास
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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