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________________ ( ७१ ) बना खाते है, वे तो किसी त्यागी के समान किसी चीजको स्पर्श तक भी नही करते. अब उन्होंने विचार किया कि हमने परिग्रह का जो त्याग किया है सो अपने निजी अंग भोग खर्चने के उपयोगमें लेनेका त्याग किया है परंतु धर्म मार्ग में खर्चनेका त्याग नहि किया. इस लिये हमे इस धनको धर्मं मार्गमें खर्चना योग्य है. इस विचारसे दूसरे दिन दुपहर से सातों क्षेत्र में धन खर्चना शुरु किया. दीन, हीन, दु.खी, श्रावकों को तो निहालही कर दिया. अब रात्रीको सुख पूर्वक सो गये. फिर भी सुबह देखते है तो उतना ही धन घरमें भरा हुवा है जितना कि पहेले था. इससे दूसरे दिन भी उन्होने वैसा ही किया, परंतु आगले दिन उतनाही धन घरमें आ जाता है. इस प्रकार जब दस रोज तक ऐसा ही क्रम चालू रहा तब दसवी रात्रीको लक्ष्मी आकर शेठसे कहने लगी कि बाहरे भाग्यशाली ! यह तुने क्या किया ? जब मैने अपने जानेकी तुझे प्रथमसे सूचना दी तब दो तब तूने मुझे सदा के लिये ही बांध ली. अब मै कह | जाऊं ? तूने यह जितना पुण्य कर्म किया है इससे अब मुझे निश्चित रूप से तेरे घर रहना पडेगा. शेठ शेठानी बोलने लगे कि अब हमें तेरी कुछ अवश्यकता नहीं हमने तो अपने विचारके अनुसार अथ परिग्रह का त्याग ही कर दिया है. लक्ष्मी बोली- “ तुम चाहे सो कहो परंतु अब मै तुम्हारे घरको छोड नही सकती. शेठ विचार करने लगा कि अब क्या करना चाहिये यह तो सचमुचही पीछे आ खड़ी हुई. अब यदि हमें अपने निर्धारित परिग्रहसे उपरात ममता हो जायगी तो हमें यहा पाप लगेगा, इस लिये जो हुवा सो हुवा, दान दिया सो दिया, अब हमें यहा रहना ही न ' चाहिये. यदि रहेंगे तो कुछ भी पापके भागी बन जायेंगे, इस विचारसे ये दोनों पति पत्नी महा लक्ष्मीसे भरे हुये घर बारको 77
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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