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________________ (३२) ऐसा समझकर सुज्ञ जन अपने मुखसे अपनी पडाइ वा दूसरेकी लघुता करतही नहि. ६१ मनसेंभी हर्ष नहि ल्याना, 'बहु रत्ना वसुंधरा ' पृथिवीमें बहोतसे रत्न पडे है, ऐसा समझकर आपभी शिष्ट नीति विचारके आप तैसी उत्तम पक्तिके अधिकारी होने के लिये प्रयत्न करना. जहांतक संपूर्णता आ जावे वहातक सन्नीतिका दृढालंपन कीये करना दुरस्त है. यदि किंचितभी मंद पडकर मनको छुट्टी दी तो फिर खराबी तैसीही होती है. अल्पगुण प्राप्तिमही मनको दिमागदार बनानेसे गुणकी वृद्धि नहि होती है. बहोतही गुणोकी प्राप्ति होनेपरभी जो महाशय गर्व रहित प्रसन्न चित्तसे अपना कर्तव्य कीया करते है वो अंतमें अवश्य अनंत गुण गणालंकृत होकर मोक्षसंपदा प्राप्त करते है ६२ पहिले सुगम, सरल कार्य शुरू करना. एकदम आकाशको बालगिरी करने जैसा न करते अपनी गुंजाश- ताकात याद कर धीरे धीरे कार्य लाइनपर ल्याना, सोही यानपनका काम है.एकदम बिगर सोचे सिरपर बड़ा काम उठा लेकर फिर छोड देनेका परत आ जाय और उल्टा छछोरापन बेवकूफी सरदारी लेनी पडे उरसे तो समतासे काम लेना सोही सबसे बेहतर है. ६३ पीछे बडा कार्य करना. कार्यका स्वरूप समझकर समतासे वो शुरु किये बाद चित्त उत्साहादि शुभ सामग्री योगसे युक्त कार्यकी सिद्धिके लिये पुख्त प्रयत्न करना. ऐसी शुभ नीतिसे कार्य करने में अध्यवसायकी विशुदिसे उत्तम लाभ प्राप्त होता है. ६४ (परंतु) उत्कर्ष नाहि करना. शुभ कार्य समतासे शुरू करके तिनकी निर्विघ्नतासे समाप्ति
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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