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________________ (३३) होने बादभी अभिमान या बडाई जैसा कुच्छभी करना नहि. मनमें ऐसी श्रद्धा-समझ ल्याके कि कोइभी कार्य काल, स्वभाव, नियति पूर्व कर्म और पुरुषार्थ ये पांचो कारण प्राप्त हुवे विगर होताही नहि, तो वो पांचो कारण मिलनसे कार्य हुवा उस्में गर्व काहेका करना चाहिये ? क्यों कि कार्य तो उन कारणोने कीया है, पास्ते गर्व छोड कार्य सिद्ध होनेसे श्रद्धा-दृढतादि विवेकसे नम्रताही धारण करनी दुरस्त है. वैसे सुनम्र विवेकी जन जगत्के अंदर अनेक उपयोगी शुभ कार्य कर सकते है. ६५ परमात्माका ध्यान करना. पायात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा ऐसे आत्माके तीन प्रकार है. शरीर कुटुंबादि वाद्य वस्तुओमें व्याकुलतावंत हो रहा हुवा बाह्य, आत्मा कहा जाता है. अंतरके भीतर विवेक जागृत होनेसे जिस्को गुण-दोष, कृत्याकृत्य, लामालाभका भान-शुद्धि हुई हो, स्व परकी समझ पड गई हो, ज्ञानादि गुणमय आत्मा सोही में हुं और ज्ञानादि उत्तम गुण संपत्तिही मेरे सिवाय शरीर, कुटुंब, धन, धान्यादि सब पुदगलिक वस्तुओ है ऐसा समझनमें आया हो वो अंतरात्मा कह जाता है. और जिसने संपूर्ण विवकसे मोहादि कुल्ल अंतरंग शत्रुओंका सर्वथा उच्छेद करके विमल केवल ज्ञानादि अनंत आत्मसंपत्ति हाथ की हो सो परमात्मा कहाजाता है. बहिरात्मा, परमात्मा का ध्यान करनेको नालायक है और अंतरात्मा लायक है. अंतरात्मा, परमात्माके पुष्टालंबनसे दृढ श्रद्धा-विवेक प्राप्तकर आपही परमात्मपद प्राप्त करता है. वास्ते मोह माया छोडकर सुपिवेकस अंतरात्मापन आदरो. आत्मार्थी जनोंने परमात्माका ध्यानका अधिकार-योग्यता प्राप्त कर निश्चय चित्तसे परमात्माका पद प्राप्त करनेको प्रयत्न-सेवन करना योग्य है. जन्म, जरा और मृत्युरुप
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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