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________________ (२९) गुणोंमें औगुनपनका मिथ्या आरोप कर्वाभी हितकारी नहि है ऐसा समझकर सुज्ञ जनको गुणही ग्रहण करनेकी और सदगुणकी प्रशंसा करनेकी अवश्य आदत रखनी. ५२ औसरपर बोलना, उचित औसरकी प्राप्ति विगर बोलनाही नहि. उचित औसर प्राप्त हो तोभी प्रसंग-मोका समालकर प्रसंगानुयायी थोडा और माठा भाषण करना. बिन औसर हदसे ज्यादा बोलनेसे लोकप्रिय कार्य नहि हो सकता. मगर उलटा कार्य विगडेता है. ऐसा समझकर हरहमेशा सच्चा हितकारी और थोडा-- मतलव जितनाही विवेकसे भाषण करनेकी दरकार करना. प्रसंगके सिवा बोलनेवाला बकवादी,, दिवाने मनुष्यमें गिनाया जाता है, यह खूब यादमे रखना ! ५३ खल दुर्जनकोभी जनसमाजकी अंदर योग्य सामान देना. सिरो लिखित नीति वाक्य सज्जनोको अत्यपयोगी है, उक्त नीतिक उल्लवनसे क्वचित् विशेष हानि होती है. दौजन्य दोषके प्रकोपसे. खलजन रहामनेवालेको संतापित करनेमें बाकी नहि रखता है. ५४ स्व परहित विशेषतासे जानना, हिताहित, कृत्याकृत्य वा बलाबलका विवेकपूर्वक स्वशक्ति देश-- काल मानादि लक्षमे रखकर उचित प्रवृत्ति करनेवालेको हित अन्यथा अहित होने का संभव है, वास्ते सहसा--बिना शोचे काम नहि करनेकी आदत रख कदम दर कदम विवेकसे वर्तनकी जरुरत है. सद्विवेकधारी ( परीक्षापुर्वक प्रवृत्ति करनेवाले ) का सकलार्थ सिद्ध होता है. ५५ मंत्र तंत्र नहि करना, कामन, टोना, वशीकरणादि करना कराना ए सुकलीन जनका जनका
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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