SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२८) ४९ विलय सेवन करना चाहिये. नम्रता, कोमलता, मृदुता वगैरे पर्यायवाची शब्द है सो सब विनयकेही है. विनय सब गुणोका वश्यार्थ प्रयोग है. विनयसे शत्रु भी वश हो जाता है विवेकसे गुणिजनोका कीया हुवा विनय श्रे४ फल देता है. और विनय बिगरकी विधाभी फलीभूत नहि होती है. ५० दान देना. __ लक्ष्मीवंत होकर सुपात्रादिको विवेकसे दान देना सोही लक्ष्मी तकी शोभा वा सार्थकता है. विवेकपूर्वक दान देनेवालेकी लक्ष्मीका व्यय कीये हुवेभी कुके पानीकी तरह निरंतर पुण्यरूप आमदनीसे चढती होती जाती है. विवेक रहित पनेसे व्यसनादिमें उडादेने वालेकी लक्ष्मीका तत्वसे वृद्धि विनाही तुरत अंत आ जाता है. सूमकंजुसकी लक्ष्मी कोइ भाग्यवान् नर ही मुक्तता है व्यय करके लाभ प्राप्त करता है; परंतु ममण शेठकी तरह तिनसे एक दमडीभी शुभ मार्गमें खर्ची नहि जाती और न वो विचारा तिसको उपभोगभी ले सकता: पूर्वजन्ममे धर्मकार्यकी अंदर गडबड डालनका यह फल समझकर दानांतराय नहि करना. ५१ दूसरेके गुणका ग्रहण करना. __ आप सद्गुणालंकृत हो तदपि संत साधु जन दूसरेका सद्गुण देखकर मनमें प्रमुदित होते है. तोभी सज्जनोकी अंदर के सदगुणोको देखकर असहनताके लिये दुर्जन उलटे दिल में दुःख पाते है-दिलगार होते है और अंतमें दुधकी अदर जंतु ढुंढने मुजब तैसे सदगुणशाली सज्जनोभी मिथ्या दोषारोपण करते है और जुटे दूषण लगाकर महा मलीन अध्यवसायसे पावले कुत्ते की तरह बुरे हालसे मृत्यू पाकर दुर्गतिमें जाते है. अमृतको अंदर विष बुद्धि जैसे सद
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy