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________________ (२२) छोड देवे नही, तैसे शुभ अभ्यासके योगसे कचित महान लाभ सपादन होता है. यावत् लगीभी तिनके पुन्यसे खींचाइ हुइ स्वयमेव आ मिलती है; परंतु खङ्गकी धारापर चलने जैसा यह कठीन व्रत साहसीक पुरुषही सेवन कर सकता है. ३६ अत्यंत राग नेह करना नाहि, स्वार्थनिष्ठ संबंधी जनके साथ राग करनाही मुनासिब नहि है. जिस्के संयोगसें राग धारण कर सुख मानता है तिकेही वियोगसें दुःखमी आपही पाता है. इतनाही नहि लेकीन संबंधी जनकी स्वार्थनिष्ठता समझ जानेपरभी दुःख होता है. वास्त ज्ञानी अनुभवी पुरुषोके प्रामाणिक लेखो प्रतीति रखकर वा साक्षात् अनुभव-परीक्षा करके तैसा स्वार्थनिष्ठ जगतमें रागही करना लायक नहि है. तिसमें भी बहोत मर्यादा बहारका रोग- स्नेह करना सो तो प्रकट अविवेकही है. क्योंकि ऐसा करनेसे अंधकी माफिक कुछ गुण दोष देखकर निश्चय नहि कर सकता है. यु करतेभी राग करनेकी चाहना हो तो संत सुसाधुजनोके साथही राग करो कि जिसे कुत्सित राग विषका नाश कर आत्माको निर्विषता प्राप्त हो. अन्यथा रागरंगसे अपना स्फटिक समान निर्मळ स्वभाव छोडकर परवस्तुमे बंधनकर जीव अत्र परत्र दुःखकाही भोक्ता होता है. रागकी तरह द्वेष भी दुःखदाइ ही है. ३७वल्लभजनपरभी बार बार गुस्। नहि करना, ' क्रोधसे प्रीतिकी हानि होती है, क्रोधसे पल्लमजन भी अप्रिय हो पडता है, क्रोध वशवी जीव कृत्याकृत्यका विवेक भूलकर अकृत्य करनेको प्रवर्तता है, वास्ते सुखार्थिजनोने कषायवश होकर असभ्यता आदरके कवीभी उचित नीतिका उल्लंघन कर 'स्व परको दुःखसागरमे डुबाना नहि.
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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