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________________ अध्याय ] प्राचार्यको तुलसी के अनुभव चित्र है कि मौन साधना मेरी प्रात्मा के लिए, मेरे स्वास्थ्य के लिए, बहुत अच्छी खुराक है। बहुत बार मुझे ऐसे अनभव भी होते रहते हैं । यह मौन साधना मुझे नहीं मिलती तो स्वास्थ्य सम्बन्धी बड़ी कठिनाई होती । पर बसा क्यों हो ? स्वाभाविक मौन चाहे पाँच घण्टा का हो उससे उतना आराम नहीं मिलता, जितना कि मंकल्पपूर्वक किये गए एक घण्टा के मौन से मिलता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि संकल्प में कितना बल है। साधारणतया मनुष्य यह नहीं समझ सकता, पर तत्त्वतः संकल्प में बहुत बड़ी प्रात्म-शक्ति निहित है। उसमे प्रात्म-शक्ति का भारी विकास होता है। अवश्य ही मनप्य को इस संकल्प-बल का प्रयोग करना चाहिए।" प्राचार्य हरिभद्र ने मभिसन्धिपूर्वक वस्तु के परिहार को ही त्याग कहा है। सकल्प में कितना वीर्य केन्द्रित है, उसे एक कुशल मनोवैज्ञानिक ही समझ सकता है। प्राचार्यश्री ने जो कुछ पाया है, उसके पीछे उनका कर्तत्व है, पुरुषार्थ है और लक्ष्य पूर्ति का दृढ़ संकल्प । वे लक्ष्य की ओर बढ़े हैं, बढ़ रहे हैं। जब कभी लक्ष्य की गलि में अन्त राय हुआ है, उसका पुनः सन्धान किया गया है-"इन दिनों डायरी भी नहीं लिखी गई। मौन भी छट गया। अब दोना पुनः प्रारम्भ किये हैं । धनजी सेठिया बंगलोर वाले पाए, और बोले-आपने मौन क्यों छोड़ दिया ? वह चालू रहना चाहिए। उसमें विश्राम, स्वास्थ्य और बल मिलेगा। मैंने कहा-"पाठ वर्षों से चलने वाला मौन यू०पी० से बन्द हो गया, पर अब चाल करना है। जेठ सुदी १ मे पुनः मौन प्रारम्भ है।" सिद्धान्त-विरोधी प्रवृत्ति में असहिष्णुता आचार्यश्री में समना के प्रति आस्था है और सिद्धान्त के प्रति अनुगग। इसलिए वे किमी भी सिद्धान्त-विरोधी प्रवृत्ति को सहन नहीं करते। "दुपहरी में संत व्याख्यान दे रहे थे। एक लाल दरी बिछी हुई थी। सब लोग बैट थे. कुछ भाभी (हरिजन) भी उस पर बैठ गए । सुनने लगे। जैन लोगों ने यह देखा तो बड़े जोश में बोले-तुम लोगों में होग नहीं जो जाजम पर पाकर बैठ गए। यह पंचायती जाजम है। वे आक्रोश करते हुए हरिजनों को उठा कर जाजम खींच कर ने गये । बहतों को बुरा लगा, हरिजनों को बहुत ही धक्का लगा। कई तो रोने लग गये, मैंने भीतर से यह दृश्य देखा । मन में वेदना हुई। इस मानवता के अपमान को मैं मह नहीं सका। मैं व्याख्यान में गया। स्पष्ट शब्दों में मैंने कहा-"जिन तीर्थकर भगवान महावीर ने जातिवाद के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन किया, उन्हीं के भक्त आज उसी दलदल में फंस रहे है, बडा आश्चर्य है । मैंने अाँखों में देखा-"मनुप्य किस प्रकार मनुष्य का अपमान कर मकता है। दरी पापको इतनी प्यारी थी तो बिछाई ही क्यों ?" मैंने उनसे कहा -"माधुओं के सान्निध्य मे इस प्रकार किसी जाति का तिरस्कार करना क्या साधुनों का तिरस्कार नहीं है ?" वहाँ के सरपंच को, जो जैन थे, मैंने कहा-"क्या पंचायत में सभी सवर्ण ही है?" नही, भाभी भी हैं ! "तो कैसे बैठते हो?" वहां तो एक ही दरी पर बैठते हैं। "तो फिर यहाँ क्या हुआ।" हमारे यहाँ ऐसी ही रीति है। आखिर उन्होंने भूल स्वीकार की। उन्हें छमाहत की भावना मिटाने की प्रेरणा दी और हरिजनों को भी शान्त किया।" १ वि० सं० २०११ फाल्गुन शुक्ला ७, पूना २ वि० सं० २०१६ जेठ शुक्ला १, कलकत्ता ३ वि०सं० २०१० साल कृष्णा १०
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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