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________________ ४० ] प्राचार्य तुलसी प्रभिनन्दन ग्रन्य [ प्रथम । दूसरे प्रश्न के सम्बन्ध में, द्वितीय महायुद्ध जो मौत और विनाश के पथ पर तेजी से आगे बढ़ रहा था, महिला की विजय की समस्त आशाओं को निर्मूल करता हुआ प्रतीत होता था । जैसा कि विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ने अपनी एक निराशाजनक कविता में इसी भ्राशय की पुष्टि करते हुए कहा भी था 'करुणाघन, धरणी तले करो कलंक शून्य अवश्य ही शान्ति के दूसरे उपासक महात्मा गांधी स्वयं अपने अनुयायियों के विरोध और शंकाशील उद्गारों के बावजूद भी अपनी ग्रहसा की मान्यता पर अविचल भाव से डटे हुए थे। यह स्थिति तो केवल भारत में थी। शेष दुनिया में जंगल के कानून का बोलबाला था और केवल अहिंसा का नाम लेने मात्र पर हल्की और तिरस्कारपूर्ण हँसी सुनने को मिलती थी। इस पृष्ठभूमि में मैंने अपने दो प्रश्न पूछे थे और मैं जिज्ञासा और प्रत्याशामिश्रित भाव से उनके उत्तरों की प्रतीक्षा कर रहा था क्योंकि उत्तर ऐसे व्यक्ति के द्वारा मिलने वाले थे जो भारतीय ज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान् समझे जाते हैं; भले हो उन्हें पश्चिम की रीति-नीति की प्रकट जानकारी न हो। मैं अपने परिचित साथी के कथन से, जो उनके अनुयायी थे, कुछ ऐसा ही समझा था। मैं निराश नहीं हुआ। उन एकान्त शान्त नेत्रों को चमक से जो आशाएं मेरे हृदय में उत्पन्न हुई थीं, उनको निराशा में परिणत नहीं होना पड़ा। मेरे परिचित मित्र ने अपने अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के वर्ष में इस प्राचीन धौर युगमान्य उक्ति को या तो सुना नहीं या उस पर ध्यान नहीं दिया कि प्रशा भिनतु मे तमः अर्थात् सच्चा ज्ञान अज्ञान के समस्त अन्धकार का नाश कर देता है । जब मैं आचार्यश्री से संध्या के शान्त समय में पुनः मिला तो मुझसे कहा गया कि मैं अपने प्रश्नों को विशेषकर दूसरे प्रश्न को विस्तार से पुनः पूछूं। मैंने अपने दूसरे प्रश्न का विस्तार करते हुए कहा कि पश्चिम में लोग पौरुष और शौर्य को हमारे प्राचीन क्षत्रियों की भाँति मानवी गुण मानते हैं और जीवन में साहस को सर्वोपरि स्थान देते हैं। उत्तर स्पष्ट और निश्चित थे और अच्छा होता कि मैंने उनको पूरा लिख लिया होता। किन्तु अब अपनी स्मृति के आधार पर संक्षेप में ही उनका विश्लेषण कर पाऊंगा । प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्यश्री ने कहा कि किसी धर्म, मान्यता या सम्प्रदाय और उसके संतों या धर्माचायों के बारे में निन्दात्मक या हीन भाषा का प्रयोग करना स्वयं उनके धर्म के विरुद्ध है। दूसरे प्रश्न का उत्तर काफी विस्तृत और लम्बा था। उनका कहना था कि हिंसा और संदेह-लिप्सा दो मूलभूत बुराइयां हैं, जिनसे मानव जाति पीड़ित है और ये युद्ध के अत्यन्त उम्र और व्यापक प्रतीक है। इन दोनों नग्न बुराइयों पर विजय प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग अहिंसा ही है और दुनिया को यह सत्य एक दिन स्वीकार करना ही होगा। मनुष्य सबसे बड़ी बुराइयों पर विजय प्राप्त किये बिना कैसे महत्तर सिद्धि प्राप्त कर सकता है ? अन्त में श्राचार्यश्री मेरी ओर मुस्कराये और पूछा कि क्या मेरा समाधान हो गया। मैंने उत्तर दिया कि मुझे उत्तर प्रत्यन्त सहायक प्रतीत हुए हैं और मैंने प्रणाम कर उनसे बिदा ली। उसके बाद इस घटना के वर्षों बाद मैंने कलकत्ता में एक विशाल जनसमूह से भरे हुए पण्डाल में प्राचार्यश्री को प्रश्नन्दोलन पर प्रवचन करते हुए सुना। उसके बाद उन्होने थोड़े समय के लिए मुझसे व्यक्तिगत वार्तालाप के लिए कहा। उन्होंने देश के भीतर नैतिक मूल्यों के ह्रास पर अपनी चिन्ता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि उन्हें भ्रष्टाचार और नैतिक पतन की शक्तियों के विरुद्ध मान्दोलन करने की अन्तर्तम से प्रेरणा हो रही है, विशेषकर जबकि स्वयं उनके सपने सम्प्र दाय के लोग भी तेजी से पतन की पोर जा रहे हैं। मैंने पूछा कि अपनी सफलता के बारे में उनका क्या ख्याल है, उनके मुख पर वही मुस्कराहट खेल गई, हालांकि उनके नेत्रों में उदासी की रेखा खिली हुई दिखाई दी। उन्होंने कहा, जब वह नई दिल्ली में पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले थे तो उन्होंने पंडितजी से पूछा था कि अणुव्रत आन्दोलन की सफलता के बारे में उनका क्या ख्याल है। पंडितजी ने कहा था कि वह दिन-प्रतिदिन दुनिया के सामने अहिंसा का प्रचार करते रहते हैं, किन्तु उनकी बात कौन सुनता है ? पंडितजी
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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