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________________ अध्याय तेजोमय पारशी व्यक्तित्व इससे बीच-बीच में बाधा पड़ती रही। वे भक्तों को प्राशीर्वाद देते जाते और शान्तिपूर्वक दीक्षा की विधि विस्तार से समझाते रहे। अन्त में उन्होंने हँसते हुए मुझे कोई प्रश्न पूछने के लिए मंकेत किया। मेरे मस्तिष्क में अनेक प्रश्न थे, किन्तु उनमें से दो मुख्य और नाजुक थे; कारण उनका सम्बन्ध उनके धर्म मे था। काफी संकोच के बाद मैने कहा कि यदि मेरे प्रश्न प्रापत्तिजनक प्रतीत हों तो वे मुझे क्षमा कर दें। मैंने कहा कि मैं दो प्रश्न पूछना चाहता हूँ और मुझे भय है कि उन पर पापको बुरा लग सकता है । इस पर उन्होंने कहा कि यदि प्रश्न ईमानदारी से पूछोगे तो बुरा लगने की कोई बात नहीं है । तब मैंने प्रश्न पूछे। दो प्रश्न पहला प्रश्न जीवन के प्रकार और मेरी विनीत मान्यता के अनुसार पाप और मोक्ष के बारे में या। जिम धर्म मे मेरा पालन-पोषण हुअा था, उसमें गृहस्थ पाश्रम को मूलनः पापमय नहीं समझा जाता ; जबकि जैन धर्म के सिद्धान्तो के अनुसार संसार के सम्पूर्ण त्याग द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। अतः यदि मैं अपने धर्म पर श्रद्धा रख कर चलूं तो क्या मेरे जैसे प्राणी को मोक्ष मिल ही नहीं सकता ? दूसरा प्रश्न था कि दुनिया किस तरह चल रही है ? उस समय द्वितीय महायुद्ध अपने पूरे वेग, रक्तपात और विनाश के साथ चल रहा था। मैंने पूछा कि जब दुनिया में सत्ता और अधिकार की लिप्सा का बोलबाला है, गक्तिशाली वही है जो मुक्ष्म नैतिक विचारों की कोई परवाह नहीं करता और उनको कमजोगें और अजानियों का भ्रम-मात्र समझते हैं, क्या हिसा की विजय हो सकती है? उनके निकट नैतिकता और धर्म सापेक्ष शब्द हैं। विज्ञान में दक्ष और युद्ध करने में समर्थ लोगों के लिए जो उचित है, वह कमजोगें और अकुशल लोगो के लिए उचित नहीं है। अपने कथन के प्रमाण स्वरूप वे इतिहास की माक्षी प्रस्तुत करते है। मेरे साथ एक परिचित सज्जन थे, जो तेरापंथ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उन्होंने कहा कि मेरा दूमग प्रश्न प्राचार्यश्री की समझ में नहीं आया । इममे मेरे मनमे शंका पैदा हुई और मैंने अपने मित्र की ओर एवं फिर आचार्यश्री की ओर देखा । प्राचार्यश्री, जब मैं प्रश्न पूछ रहा था, तो चुप थे ओर मेरे प्रश्नों का विचार करत प्रतीत हुए । किन्तु मैने देखा कि उनके शान्त नेत्रों में प्रकाश की किरण चमक उठी और उन्होंने कहा कि इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए शान्त वातावरण की आवश्यकता होगी, इसलिए अच्छा होगा कि आप सायंकाल सूर्यास्त के बाद जब आयेगे, मैं प्रतिक्रमण व प्रवचन समाप्त कर चुकंगा और तब एकान्त में वार्तालाप अच्छी तरह हो सकेगा। मुझे पता था कि मुझे विशेष अवसर दिया जा रहा है ; क्योंकि सूर्यास्त के बाद प्राचार्य श्री में उनके निकट गियों के अतिरिक्त बहन कम लोग मिल पाते है। मैंने यह सुझाव सहर्ष स्वीकार कर लिया। धर्म-गुरुत्रों से विशेष चर्चा मेरे प्रश्न घिमेघिमाए और सामान्य थे, कारण द्वितीय महायुद्ध के बाद के वर्षों में दुनिया बहुत अधिक बदल गई है। किन्तु जिस समय मैंने ये प्रश्न पूछे थे, उस समय उनका विभिन्न जातियों, धार्मिक सम्प्रदायों और जीवन-दर्शनों के बीच विद्यमान मतभेदों की दृष्टि से कुछ और ही महत्व था। उस समय मनुष्य और मनुष्य के मध्य सहिष्णुता के प्रभाव के कारण में मतभेद दतने तीव्र और अनल्लंघनीय थे कि विचारों का स्वतन्त्र पादान-प्रदान न केवल अगम्भव; बल्कि व्यर्थ हो गया था। इस प्रकार के पादान-प्रदान के फलस्वरूप प्रतिदिन सुस्थिर रहने वाले तनाव में वृद्धि ही हो सकती थी। मैं पहला प्रश्न थोडे हेर-फर के साथ भिन्न-भिन्न धर्मों के अनेक विद्वान धर्म-गुरुयों से पूछ चुका हूँ। उनमे एक रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय के मक्ति-गंथी पादरी, एक मुस्लिम मौलाना और एक हिन्दू संन्यासी शामिल थे। मुझे, जो उनसे उत्तर मिले, वे या नो अत्यन्त दयनीय या निश्चित रूप से उद्दण्डतापूर्ण थे। उनको समाधानकारक तो कभी नहीं कहा जा सकता।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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