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________________ प्राचार्यश्री तुलसी प्रभिनन्दन प्रस्थ [ प्रथम जो अपूर्व है, उन्होंने मुझसे तौलने, विचार करने और फिर निर्णय करने को कहा। प्राचार्यश्री तुलसी की शिक्षाएं बुद्ध की शिक्षानों की भांति ननिक आदर्शवाद पर आधारित हैं। उनके अनुसार नैतिक श्रेष्ठना ही धर्म का निश्चित और ठोस आधार है। जब कि भौतिकवाद का चारों ओर बोल-बाला है, उन्होंने मानवता के, नैतिक उत्थान के लिए प्रणवतआन्दोलन चलाया है। दूमो अनेक व्यक्तियों के साथ जो ज्ञान और अनुभव में विद्वत्ता और आध्यात्मिक भावना में मुझसे आगे हैं, मैं पतनोन्मुख भारत के नैतिक उत्थान के लिए प्राचार्यश्री तुलमी ने जो काम हाथ में लिया है और जो पाशातीत मफलताएं प्राप्त की हैं, उनके प्रति इम धवल समारोह के अवसर पर अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि भेंट करता हूँ। अणुव्रत-आन्दोलन एक महान् प्रयास है और उमकी कल्पना भी उतनी ही महान् है । एक श्रेष्ठ मत्य-धर्मी संन्यासी के द्वारा उसका संचालन हो रहा है । अपने सम्प्रदाय को संगठित करने के बाद उन्होंने १ मार्च, १६४६ को देश व्यापी नैतिक पतन के विरुद्ध अपना आन्दोलन प्रारम्भ किया। युग पुरुष व वीर नेता हम सदियों की दासता के बाद सन् १९४७ में स्वतन्त्र हुए, किन्तु हमने अपनी स्वतन्त्रता अनुशासन के कठिन मार्ग में प्राप्ति नहीं की। इसलिए अधिकार और धन-लिप्सा ने समाज-संगठन को विकृत कर दिया। जीवन के हर क्षेत्र में अकुशलता का बोल-बाला है। नीतिहीनता ने हमारी शक्ति को भीण कर दिया है और इसलिए जब तक हम नैनिक म्वास्थ्य पुनः प्राप्त नहीं कर लेते, हम राष्ट्रों के समाज में अपना उचित स्थान प्राप्त करने की आशा नही कर सकते। मानव पतन के सर्वव्यापी अन्धकार के मध्य नैतिक उत्थान की उनकी मुखर पुकार पाश्चर्यकारक ताजगी लिए हुए पाई है और नंगे पाँव व श्वेत वस्त्रधारी यह माधु अचानक ही यगपुरुष व वीर नेता बन गया है। ऐसे ही पुरुप की ग्राज राष्ट्र को तात्कालिक आवश्यकता है। शुक्ल यजुर्वेद में एक स्फूर्तिदायक मन्त्र है, जिसमें ऋषि अपनी सच्ची प्रास्था प्रकट करते है । “ो उज्ज्वल ज्ञान के पालोक, शक्ति की अग्नि-शिखा, मुझे अनीति की राह पर जाने से रोक । मुभे, मत्पथ पर अग्रसर कर । मै नये पवित्र जीवन को अंगीकार करूँगा, अमर आत्माओं के पद-चिह्नो पर चलता हुमा मत्य और माहम का जीवन व्यतीत कफँगा।" मनुष्य की प्रात्माभिव्यक्ति कर्म के माध्यम में होती है, ऐसा कर्म जो कष्टसाध्य और स्थायी हो और जो प्रात्मा की मुक्ति और विजय की घोषणा करने वाला हो। मनुष्य को निःस्वार्थ भाव मे फल की प्राकांक्षा का त्याग करके कर्म करना चाहिए। यही मच्ची तपस्या है, यही सच्ची चारित्रिक पूर्णता है। चरित्र और नैतिक श्रेष्ठता के बिना मनप्य पश बन जाता है और सत्यं, शिवं और मुन्दरं का अनुमरण करके वह प्रेम के मार्ग पर ऊँचा और अधिक ऊँचा उठता जाता है और अन्त में अमर प्रात्मानों के राज-मिहासन के पद पर आसीन होता है। नैतिक मूल्यों की स्थापना अतः प्राचार्यश्री तुलमी ने भारत माता की मच्ची मुक्ति के लिए अणुव्रत-आन्दोलन का सूत्रपात करके बडा महत्त्वपूर्ण काम किया है। केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता से काम चलने वाला नहीं है। यहाँ तक कि शिक्षा-सुधारों, आर्थिक मफलताओं और सामाजिक उत्थान से भी अधिक सहयोग नहीं मिलेगा। सर्वोपरि अावश्यकता इस बात की है कि व्यक्तियों और मारे समाज के जीवन मे नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना हो। नैतिक पुनरुत्थान का मर्वोत्तम मार्ग यह नहीं है कि लोगों के सामाजिक जीवन में मामूल परिवर्तन होने की प्रतीक्षा की जाये, बल्कि व्यक्ति के सुधार पर ध्यान केन्द्रित किया जाये । व्यक्तियों से ही समाज बनता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति मज्जन बन जाये तो मामाजिक उत्थान के पृथक प्रयास के बिना ही समाज धर्म-परायण बन जायेगा। जब कोई व्यक्ति प्रतिज्ञा लेता है तो यह अपने को नैतिक रूप में ऊँचा उठाने का प्रयास करता है । वह अपने द्वारा अंगीकृत कर्तव्य के प्रति धार्मिक भावना मे प्रेरित होता है और इसलिए वह उस साधारण व्यक्ति की अपेक्षा जिसे
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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