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________________ २५४ 1 प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन अन्य [प्रथम से है । रामकथा का क्षेत्र देश, काल, जाति, धर्म और भाषा की दृष्टि से जितना व्यापक है, उतना सम्भवतः संसार की किसी अन्य कथा का नहीं है। राम और सीता को भारतवर्ष के विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय ही नहीं, बाहर के देश भी अपना उपास्य देव मान कर ग्रहण करते हैं। रामकथा का विस्तार होने से इसमें रूपान्तर होना तो स्वाभाविक है ही, किन्तु कहीं-कहीं पाद्यन्त परिवर्तन भी दृष्टिगत होता है। जैन ग्रंथों में रामकथा का प्रारम्भ सातवीं शती से देखा जा सकता है। 'अग्नि-परीक्षा' की रचना प्राचार्यश्री तुलसी ने रामकथा के विभिन्न रूपों को पढ़ कर अपनी नूतन शैली से की है। किन्तु इसका कथा-प्रसंग मूलत: विमल मुरि कृत 'पउम चरिउ' की परम्परा से जुड़ा हुआ है । इस कथा में कुछ नवीन पात्र अवश्य हैं जो वाल्मीकि और तुलसी की रामायण के पाठकों को नये प्रतीत होंगे, किन्तु समग्र कथा-प्रवाह में उनको बिना जाने भी पाठक अव्यवधान से रसानुभूति कर सकता है। 'अग्नि-परीक्षा' पाठ सर्गों में विभक्त प्रबन्ध काव्य है। इस काव्य की कथा रावण-वध के उपरान्त लंका में जुड़ी राम की विराट सभा से प्रारम्भ होती है । दशकघर के दिव्य प्रासाद में राम-लक्ष्मण सिंहासन पर विराजमान हैं और सुग्रीव, विभीषण, हनुमान आदि उनके चारों तरफ मंडलाकार बैठे हैं। नारद उस समय सभा में आते हैं और वे साकेत नगरी में दुःखी होती हुई वृद्धा माताओं का वात्सल्य भरा करुण सन्देश राम-लक्ष्मण को देते हैं। इस प्रसंग में कवि की वाणी माता की ममता और उसके अतुल उपकारों का वर्णन करने में लीन हुई है और बड़ी भावनाओं के साथ मातृत्व का प्यार इन पंक्तियों में उल्लमित हुया है । अग्नि-परीक्षा का दूसरा अध्याय 'षड्यन्त्र' शीर्षक प्रसिद्ध रामचरित कथा से कुछ नया है । सम्भवतः यह प्रसग जैन कथाओं में हो, किन्तु वाल्मीकि और तुलमी में यह कथा-प्रसंग नहीं है । रामराज्य के सुख और प्रानन्दपूर्ण वातावरण के चित्रण करने के ठीक बाद ही यह दिखाया गया है कि राम की अन्य रमणियां सीता के प्रति ईर्ष्यालु और वैमनस्य की भावना से सीता के विषय में मिथ्या प्रवाद प्रमारित करने का षड्यन्त्र करती है। राम की ये रमणियाँ कौन हैं और इनको राम के प्रति किस प्रकार का ममत्व है, यह इस कथा-प्रसंग में प्रघटित-सा प्रतीत होता है : रमणियां राम की सब मिल सोच रही है, सीता रहते किंचित सुख हमें नहीं है। उससे ही रंजित नाथ ! रात दिन रहते, हमसे हंसकर दो बात कभी ना कहते। जलता रहता मन भीतर ही भीतर में। यह कैसा घोर अंधेर राम के घर में। मालोक जहाँ से फैला भारत भर में। यह कैसा घोर अंधेर राम के घर में। राम की रमणियों ने षड्यन्त्र कर सीता से रावण के पैरों का चित्र बनवा कर उसे लांछित किया और राम को विवश कर दिया कि वह सौता को विसर्जित करें। सन प्रकल्पित कल्पना यह, राम दाखित हो गये, खिन्न मन विश्राम गृह में, क्लान्त होकर सो गये। ज्वार विविध विचार के हृदयाग्धि में प्राने लगे, लहर बन कर प्रोष्ठ तट से शब्द टकराने लगे। राम का अन्तस्तल नगर में व्याप्त किंवदन्तियों और प्रवादों से खिन्न हो गया। वे निर्णय न कर सके कि सीता के उज्ज्वल धवल चरित्र पर यह कलंक-कालिमा क्यों थोपी जा रही है। किन्तु लोकापवाद को बलवान मानकर सीतापरित्याग का कठोर निर्णय कर ही लिया। कवि ने राम के उद्भ्रान्त मन को बड़े सशक्त शब्दों में वर्णन किया है : अभ्र, अवनी, सर, सरोरुह, श्रान्त-शाम्त नितान्त थे, सरित, सागर-शब्द रह-रह हो रहे उबुभ्रान्त थे।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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