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________________ व्यक्तित्व-दर्शन श्री नथमल कठौतिया उपमन्त्री, जैन इबेताम्बर तेरापंपी महासभा,कलकत्ता मूर्तिकार की कलाकृति में सजावता एवं लालित्य तभी आता है जबकि उसे उपयुक्त शिला-खण्ड प्राप्त हो। माली की कला-दक्षता का सही प्रस्फुटन तभी हो सकता है जबकि उसे उर्वर भूमि उपलब्ध हो, साहित्यकार की लेखनी में रस-संचार तभी हो पाता है, जब कि उसे भावनानुकूल विषय सुलभ हो । यद्यपि मूर्ति की सद्यःसजीवता एवं सौन्दर्यसुघड़ता का श्रेय मूर्तिकार को, वाटिका की मुरम्य रमणीयता का श्रेय माली को एवं साहित्य की रस स्निग्ध प्रानन्दमयी कृति का श्रेय साहित्यकार को मिलता है; यह स्वाभाविक है । परन्तु कलाकृति के पृष्ठाधार को परिष्कृत व परिमार्जित करने वाले उम मूक सूत्रधार का एवं कलाकृति व कलाभिव्यक्ति के चरम-विकास में अन्य सभी सहयोगी माध्यमों का भी अपना विशेष महत्व है, किन्तु उनका मूल्यांकन व उनके प्रति वास्तविक अाभार-प्रदर्शन तो वह कलाकार ही कर पाता है, जिसको इन सबके सहयोग एवं बल पर वांछित सफलता का श्रेय मिला हो। सर्वमाधारण जन तो उन मूक व मखर सभी उपादानों के प्रति श्रद्धा-प्रदर्शन का केवल प्रयास मात्र ही कर पाते हैं । प्रस्तुत लम्ब भी एक ऐमा ही प्रयास है । आचार्यश्री तुलसी वर्तमान युग की एक अनुपम कृति हैं और उसके कलाकार हैं महामानव अष्टमाचार्य श्री कालूगणीराज : जिनको अनुपम व अनोग्वी मूझ-बूझ, कर्मठ कर्तव्य-निष्ठा व बहुमखी विकाम प्रतिभा के फलस्वरूप विश्व को एक अमूल्य रत्न, एक ज्वलन्त प्रतिभा प्राप्त हुई। जिसके पुनीत प्रकाश में भ्रमित विश्व अपना पथ-प्रदर्शन पाता है। गौरव एवं गरिमामयी इम भेट के लिए विश्व इस मूर्धन्य कलाकार का चिर ऋणी रहेगा, इसमें मन्देह नही। बर्चस्वी कलाकार श्री कालगणी के उपर्यात अप्रतिम कर्तत्व में उनके मेवाभावी शिष्य मुनिश्री चम्पालालजी (भाईजी महाराज) का भी उल्लेखनीय योगदान हुना। वस्तुतः ऐसा सौभाग्य किसी विरले जन को ही मिल पाता है । मुनिश्री प्राचार्यप्रवर के वरद हस्त है, इस हेतु प्राचार्यश्री के क्रम-विकाम में उनका पूरा-पूरा योगदान रहा है, जो स्वाभाविक है। मुनिश्री की दीक्षा स्वर्गीय प्राचार्यश्री कालगणीराज के करकमलों द्वारा चरू वि० सं० १९८१ में सम्पन्न हुई थी। उनकी अपनी दीक्षा हो जाने के लगभग डेढ़ वर्ष पश्चात् आपका ध्यान अपने अनुज ग्रानार्यश्री तुलमी की विशेषताग्रो व विलक्षणतारों की ओर आकर्षित हुा । अनुज के अंक-विशेषों में उन्हे महापुरुषोचित लक्षण दृष्टि-गोचर हए । इस प्रकार प्राकृत-विशेष में प्रच्छन्न किसी महान व्यक्तित्व का आभाम पाकर मुनिश्री ने मन-ही-मन अनुज के लिए सर्वोत्तम आत्मार्थी मार्ग की कल्पना संयोजित की और इस हेतु प्रयासित हुए। समय-समय पर मुनिश्री उन्हें प्रेमपूर्वक सरल शब्दों में भिन्न-भिन्न बालकोचित उपायों एवं उपदेशात्मक चित्रों द्वारा जीवन की मही दिशा का निर्देशन करते तथा उन्हें सांसारिखता से विरक्त कर आध्यात्मिकता की पोर प्रेरित करते रहते । इस तरह कुछ तो मुनिश्री के अविरल प्रयास से एवं कुछ अपने संयोजित संस्कारों से बालक तुलसी की निर्मल पात्मा में ग्यारह वर्ष की आयु में ही एक दिन वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हुआ एवं आज के प्राचार्यप्रवर बालक तुलसी अपने भविष्य की ओर आकर्षित हए । प्रयासिन फल-प्राप्ति की सफलता पर मुनिश्री के हर्ष का पारावार न रहा, पर साथ-ही-साथ उन्होंने अब उसके विकास प्रकाश की आवश्यकता भी अनुभव की और उन्होंने विनम्र निवेदन के साथ यह प्रश्न अपने परमगुरु स्वर्गीय प्राचार्यश्री कालगणीराज के समक्ष रखा तथा इम सहज अजित सफलता को उनके चरणों में समर्पित कर अनुज के लिए शुभाशीर्वाद की कामना की।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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