SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ ] प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन पन्य [प्रथम यह प्रसंग पांच वर्ष से भी अधिक पुराना हो चला है। बिहानेवहि जानाति बिम्जनपरिषमम् की उक्ति इस प्रसंग पर एक अपूर्व ढंग से परितार्थ हुई है। कलकत्सा से प्रकाशित 'जैन भारती' के ता. २७ अगस्त,१९६१ के एक अंक में एक संवाद प्रकाशित हुमा है, जिसमें बताया है-दिनांक १६ अगस्त, ६१ शनिवार को इण्डियन मिरर स्ट्रीट स्थित कुमारसिंह हॉल में श्रीपूर्णचन्दजी श्यामसुखा अभिनन्दन समिति की ओर से श्यामसुखाजी की प्रस्सीवीं वर्षगांठ के उपलक्ष में माननीय डा० सुनीतिकुमार चटर्जी की अध्यक्षता में एक अभिनन्दन समारोह मायोजित किया गया, जिसमें श्री श्यामसुखाजी को एक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया। समिति के मन्त्री श्री विजयसिंह नाहर व अध्यक्ष श्री नरेन्द्रसिंहजी सिंधी प्रति सम्जनों ने श्यामसुखाजी के जीवन-प्रसंग प्रस्तुत किये । अध्यक्ष श्री चटर्जी ने श्री श्यामसुखाजी के बंगाल में जैनधर्म के प्रचार कार्य की सराहना करते हुए कहा कि जैन दर्शन हमेशा संसार को एक नया पालोक देता ही है । गत कुछ वर्ष पूर्व बम्बई में जैन मुनिश्री नगराजजी से मेरा साक्षात्कार हा, जो संस्कृत के प्राशुकवि थे। उनके द्वारा तत्काल रचित संस्कृत के दो पद्यों का उच्चारण करते हुए श्री चटर्जी ने कहा कि इन दो पद्यों में जैनधर्म क्या है ? इसका एक सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया गया है। अन्त में जैनधर्म और जैन विद्वानों के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए अध्यक्ष महोदय ने श्री श्यामसुखाजी को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट कर सम्मानित किया। मुनिश्री का प्राशकवित्व बहुत ही सरल और मार्मिक होता है। प्राचार्यश्री तुलसी जब राजगृही के वैभारगिरि की सप्तपर्णी गुहा के द्वार पर साधु-साध्वियों की परिषद् में विराजमान थे, उस प्रसंग पर मुनिश्री नगराजजी के आशुकवित्व रचित श्लोकों का एक श्लोक था : प्राचार्याणामागमात् साधुबन्वैः, साध्वीवादः सार्धमत्र प्रपूतैः । विश्वख्याता सप्तपर्णी गुहेयम्, संजाताध श्वेतवर्णी गुहेयम् ।। मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' के भी भाशुकवित्व सम्बन्धी रोचक संस्मरण बने हैं। कुछ वर्ष पूर्व उनका एक प्रवधान प्रयोग कान्स्टीट्यूशन क्लब, नई दिल्ली में हुआ। उसमें बहु संख्यक संसद संदस्य, राजर्षि टण्डन, लोकसभा के अध्यक्ष श्री अनन्तशयनम् प्रायंगर प्रादि अनेकों गणमान्य व्यक्ति तथा गृहमंत्री पं० पन्त आदि अनेक केन्द्रीयमंत्री उपस्थित थे। संस्कृतज्ञ श्री अनन्तशयनम् आयंगर ने आशुकविता का विषय दिया-मसक गलक रन्ध्रे हस्तियूवं प्रविष्टम् अर्थात मच्छर के गले में हाथियों का भुण्ड चला गया। इस विचित्र विषय पर मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने बहुत सुन्दर श्लोक प्रस्तुत किए, जिसका सारांश था--आज बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने परमाणुओं की शोध में अपने-आपको इस तरह खपा दिया है कि मानो मच्छरों के गले में हाथियों का झण्ड समा गया हो। मारी सभा बहुत ही चमत्कृत हई। यह रोचक सस्मरण अगले दिन प्रायः सभी दैनिक पत्रों में प्रमुख रूप से प्रकाशित हया। राष्ट्रपति भवन में जब उनका एक विशेष प्रवधान-प्रयोग हुप्रा तो प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने प्राशु कविता के लिए उन्हें विषय दिया-'स्पूतनिक' अर्थात् कृत्रिम चाँद । रूस ने उन्हीं दिनों अन्तरिक्ष कक्षा में रपूतनिक छोड़ा था। मुनिश्री ने तत्काल कतिपय श्लोक इस अद्भुत विषय पर बोले, जिन्हें सुन कर सारे लोग विस्मित रहे। प्राचार्यश्री के शिष्य परिवार में प्राज तो इने-गिने ही नहीं, किन्तु अनेकानेक प्राशुकवि हैं। प्राचार्यवर की पुनीत प्रेरणानों ने अपने संघ को एक उर्वर क्षेत्र बना दिया है।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy