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________________ आचार्यश्री के शिष्य परिवार में आशुकवि मुनिश्री मानमलजी शताब्दी के इस पाद में सारा विश्व ही नव-नव उन्मेषमूलक रहा। सभ्यता, संस्कृति और समाज-व्यवस्था की दृष्टि से मौलिक उन्मेष इस अवधि में हुए। घटनाक्रम की इस द्रुत गति के साथ तेरापंथ साधु-संघ में प्राचार्यश्री तुलसी के शासनकाल के पच्चीस वर्ष भी अप्रत्याशित उन्मेषक बने । अनेकों अभिनव उन्मेषों में एक उन्मेष प्राशुकवित्व का बना। कविता यों ही कठिन होती है और संस्कृत भाषा का माध्यम पाकर तो वह नितान्त कठोरतम ही बन जाती है। प्राचीन काल में भी कुछ एक मेधावी लाग ही संस्कृत के आशुकवि हुआ करते थे। तेरापंथ के इतिहास में मुनिश्री नथमलजी, मुनिश्री बुद्धमल्लजी, मुनिश्री नगराजजी पाद्य आशुकवि हैं। इस नवीन धारा के प्रवाहित होने में आशुकविरत्न पं० रघुनन्दन शर्मा प्रेरक स्रोत बने हैं। उनका सहज और मधुरिम आशुकवित्व मेधावी मुनिजनों के कर्ण कोटर पर गुनगुनाता-सा ही रहता था। मुनिजनों की स्फटिकोपम मेधा में उसका प्रतिबिम्बित होना स्वाभाविक ही था। प्रकृतिलब्ध माने जाने वाली प्राशुकविता अनेक मुनियों की उपलब्धि हो गई। सर्वसाधारण और विद्वत-समाज में इस अलौकिक देन का अद्भुत समादर होने लगा। प्राचार्यश्री तुलसी के शिष्यों की यह एक अनुपम ऋद्धि समझी जाने लगी। हर विशेष प्रसंग पर, राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद की और प्राचार्यश्री के वार्तालाप पर, विनोबा भावे और प्राचार्यश्री के वार्तालाप प्रमंग पर मुनिश्री नथमलजी और मुनिथी बुद्ध मल्लजी की प्रभावात्पादक प्राशु कविताएं हुई। पूना में संस्कृत वाग्वधिनी सभा की ओर से प्राचार्यश्री के अभिनन्दन में एक सभा हुई। मुनिश्री नथमलजी को प्राशु कविता के लिए विषय मिलास्रग्धरावृत्तमालम्ग्य घटी यन्त्रं विवर्ण्यताम् अर्थात् स्रग्धरा छन्दों में घटी यन्त्र का वर्णन करें। मुनिश्री ने तत्काल प्रदत्त विषय पर चार स्रग्धरा छन्द बोले । सारी परिषद् मन्त्र-मुग्ध-सी हो गई। प्राचार्यश्री पंजाब पधारे। अम्बाला छावनी के कॉलेज में प्राचार्यश्री के प्रवचन का कार्यक्रम रहा। मुनिश्री बुद्धमल्लजी ने आधुनिक शिक्षा विषय पर धारा प्रवाह प्राशु कविता की। श्रोताओं को ऐसा लगने लगा कि मुनिजी पूर्व रचित इलोक ही तो नहीं बोल रहे हैं । चालू विषय के बीच में ही प्रिंसिपल महोदय ने एक जटिल से राजनैतिक पहलू पर भाषण दिया और कहा-इस भाषण को प्राप संस्कृत श्लोकों में कहें। मुनिश्री ने तत्काल उस क्लिष्टतर भाषण को संस्कृत में ज्यों का त्यों दुहराया और मारा भवन आश्चर्य-मग्न हो उठा। मुनिश्री नगराजजी संस्कृत भाषा की राजधानी वाराणसी में पधारे। रात्रिकालीन प्रवचन में पाशूकवित्व का प्रायोजन रहा। अनेकानेक संस्कृत के विद्वान् व प्रतिष्ठित नागरिक उपस्थित थे। प्रदत्त विषय पर प्राशुकवित्व हुप्रा । पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने अाशुकवित्व पर अपने विचारप्रकट करते हुए उपस्थितलोगों से कहा-संस्कृत पद्य रचना को कितना सहज रूप मिल सकता है, यह मैंने जीवन में पहली बार जाना। बम्बई में बंगाल विधान परिषद् के अध्यक्ष और देश के शीर्षस्थ भाषाशास्त्री डा. सुनीतिकुमार चटर्जी ने मुनिश्री नगराजजी से भेंट की। प्राशुकवित्व का परिचय पाकर उन्होंने मुनिश्री से निवेदन किया, पाप एक ही श्लोक में जैन-दर्शन का हार्द बतलाएं। मुनिश्री ने जीवन और मृत्यु प्रात्मा की पर्याय है, मोक्ष प्रात्म-स्वभाव का अन्तिम विकास है, प्रतः उसकी उपलब्धि के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए, इस भाव का एक सुन्दर श्लोक सत्काल उन्हें सुनाया। डा. सुनीतिकुमार गद्गद् हो उठे और बोले, इस श्लोक में अपूर्व भाव-गरिमा भरी है। संस्कृत में ऐसा ही एक श्लोक प्रचलित है, जिसमें सारे वेदान्त का सार पा गया है।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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