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________________ १३८ ] भाचाची तुलसी अभिनम्बन ग्रन्थ यदि उसे संप्रसारित करने वाला व्यक्तित्व प्रबुद्ध होगा तो पुरानी बातें भी नवता का आकार ग्रहण करने लगेंगी। यही कारण है, प्राचार्यश्री के व्यक्तित्व ने बीसवीं सदी के इस विज्ञान बहुल युग में भी पदयात्रा के महत्त्व को ध्वनित किया है। संयम और साधना के प्रति युग में एक अनुराग भावना संप्रसारित हुई है। भगवान् महावीर और बुद्ध को जिस प्रकार झोपड़ी से लेकर राजप्रसादों की श्रद्धा समान रूप से मिलती थी, उसी प्रकार प्राचार्यश्री ने भी झोंपड़ियों से लेकर राजप्रसादों तक का समान सम्मान पाया है। राष्ट्रपति भवन में भी उन्हें जिस प्रकार एक संत के रूप में देखा गया था; उसी प्रकार गरीबों को झोंपड़ी में भी उन्हें एक संत के समान ही समझा गया । राष्ट्रपति ने उनसे राष्ट्र के सुधार के लिए प्रणवत-आन्दोलन की आवश्यकता बताई तो उसे हरिजन-दम्पति की घटना भी उनके महत्त्व पर कम प्रकाश नहीं डाल प्राचार्यश्री जयपुर से आगे श्री माधोपुर की ओर जा रहे थे । बीच के एक गांव में विश्राम के लिए ठहरे तो उनके चारों ओर लोग एकत्रित हो गए। प्राचार्यश्री ने उन्हें व्यसन मुक्ति का उपदेश दिया और प्रागे चल पड़े । बीच मार्ग में एक हरिजन महिला आई और बोली-बाबाजी ! क्या आप मेरे घर में भी पा सकते है ? प्राचार्यश्री ने तत्क्षण अपने चरण उसके घर की ओर बढ़ा दिए । महिला के हर्ष का पारावार नहीं रहा। अपने घर में प्राचार्यश्री को पाकर कहने लगी-बाबाजी! यह मेरा पति तमाखू बहुत खाता है । मैंने इसे बहुत समझाया, पर यह मेरी बात मानता ही नहीं है। मैं इससे कहती हूँ-तू कोई कमाई न कर सके तो मत कर, घर का कार्य मैं चला लूंगी, पर कम-से-कम व्यसनों में तो पैसों को बर्बाद मत कर । अब आपने आज हमारे प्रांगण को पवित्र कर दिया है तो इसकी तमाखू भी छड़वा दीजिये। आचार्यश्री ने अपनी बड़ी आँख उस हरिजन पर गड़ाई और बोले-तू तमाखू नहीं छोड़ सकता? एक क्षण के लिए उसके हृदय में इन्द्र हुआ और फिर वह बोला-अच्छा बाबा ! अाज से नही खाऊँगा, प्रतिज्ञा करवा दीजिये। प्राचार्यश्री यह भिक्षा पाकर प्रसन्न मुख वापस लौट आये, मानो कहना चाहते हों, मेरा परिश्रम व्यर्थ नहीं गया है। पुष्करजी जा रहा हूँ ! प्राचार्यश्री जब ग्रामीणों से बात करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे उनसे उनका गाढ़ परिचय रहा है। एक बार लाइन में मध्याह्न के समय आचार्यश्री भाई-बहिनों के बीच बैठे थे कि दो किसान भाई जल्दी से आये और वंदना कर जाने लगे। प्राचार्यश्री ने उन्हें पूछा-कौन हो? कहाँ से आये हो भाई ? जाने की इतनी क्या जल्दी है ? उनमें से एक ने कहा-महाराज हम किसान हैं । यह आज इसी गाड़ी से पुष्करजी जा रहा है । अतः जल्दी है । प्राचार्यश्री-अच्छा ! पुष्करजी जा रहे हो? क्यों जाते हो वहाँ ? किसान-वहाँ स्नान करेंगे । भगवान के दर्शन करेंगे, साधुनों के भी दर्शन होंगे। प्राचार्यश्री-स्नान करने से क्या होगा? किसान-सब पाप धुल जायेंगे। भाचार्यश्री-तब तो वहां तालाब में रहने वाली मछलियों के पाप सबसे पहले धुलगे? बात कुछ चमकाने वाली थी। किसान बोला-तहाँ हमारे साधुओं के दर्शन होंगे। प्राचार्यश्री-तो क्या साधुओं में भी हमारे और तुम्हारे दो होते हैं ? साधु तो सभी के होते हैं, बशर्ते कि वे वास्तव में ही साधु हों और समझो कि सच्चे साधु वे ही होते हैं जो अपने पास पैसा नहीं रखते। अच्छा तो तुम वहाँ साधुनों को कुछ भेट बढ़ानोगे ? किसान-जरूर (मावाज में दृढ़ता थी)। प्राचार्यश्री-तो तुम साधु के पास माये हो, क्या कोई भेंट लाये हो ? अपनी जेब टटोल कर उसने एक रुपया निकाला और प्राचार्यश्री को देने लगा। प्राचार्यश्री ने उसे हाथ में लिया और कहने लगे-परे ! एक रुपये से क्या होगा?
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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