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________________ बचाय ] भगवान महावीर और युद्ध को परम्परा में [ १३७ हैं, पर व्यवहार में उससे किसी भी प्रकार से बचा जा सकता हैं। ऐसा नहीं लगता। बल्कि प्रत्येक सरस व्यक्तित्व में श्रद्धा का अपूर्व स्थान रहेगा ही। श्रद्धेय स्वयं श्रदाशील बन कर ही अपने पद तक पहुंच पाता है। जिमने श्रद्धा का मनुगमन नहीं किया, वह कभी श्रद्धेय नहीं बन सकता। भगवान महावीर और बुद्ध भी श्रद्धा के प्रादान-प्रदान में पूर्ण प्रवीण थे । यही कारण है कि हम उन्हें सदा श्रद्धालुओं से घिरा पाते हैं। उनके चारों ओर लिपटा श्रद्धा-सिचय कभी-कभी इतना अपारदर्शी हो जाता है कि वे स्वयं भी उसमें छिप जाते हैं। पर श्रद्धा में इतनी प्रकल्प्य शक्ति होती है कि कभीकभी तर्क उसका साथ ही नहीं दे पाता। महापुरुष का पुण्य प्रसाद मुझे कलकत्ते की वह षटना याद है । उस दिन आचार्यश्री कलकत्ता के विवेकानन्द रोड़ पर मास्थित चोपड़ों के मकान में ठहरे हुए थे। लोगों का आवागमन भरपूर था। उसी के बीच एक बंगाली दम्पति ने प्राचार्यश्री के कक्ष • में प्रवेश किया। बंगाल की भक्ति-भावना तो भारत विश्रुत है ही, अतः पाते ही उस युगल ने प्रणिपात किया और एक ओर हट कर खड़ा हो गया। प्राचार्यश्री ने अपनी दृष्टि उनकी ओर उठाई तो पति कहने लगा-गरदेव ! सचमुच आप हमारे लिए भगवान् हैं। प्राचार्यश्री के लिए यह शब्द प्रयोग नया नहीं था, अत: उनकी प्रशस्ति सुन शान्त हो गए। पर पति ने फिर दोहराया-गुरुदेव ! आप सचमुच हमारे लिए भगवान् ही हैं। उसकी मुख-मुद्रा में इतनी स्वाभाविकता थी कि इस बार आचार्यश्री के चेहरे पर एक प्रश्न चिह्न उभर आया। पति अपनी पत्नी की ओर सकेत कर कहने लगा-यह मेरी पत्नी है। कई वर्षों से क्षय-ग्रस्त थी। अनेक उपचार करवाने पर भी कोई लाभ नहीं हुमा । आखिर बढ़ते-बढ़ते यह अन्तिम किनारे पर आ गई और हम लोगों ने मोच लिया, वम अब यह ठीक होने की नहीं है, प्रतः दवा बन्द कर दी और शान्तिपूर्वक आयु शेष की प्रतीक्षा करने लगे। पर इसी बीच एक दिन मैंने 'अणुव्रत-पण्डाल' में आपका प्रवचन मना। नो मुझे उसमें कुछ दिव्य-ध्वनि-सी अनभव हुई । मैं आपकी मुखाकृति मे अपरिचित होकर ही तो पण्डाल में पाया था और जन प्रापकी वीणा-वाणी के स्वरालापों को सूना तो मन में पाया---जरूर यह कोई दिव्य पुरुष है। उस दिन मैं फिर आपके दर्शन की भावना लेकर अपने घर लौट गया। पर दूसरी बार जब मैं प्रवचन-पण्डाल से लौटा तो खाली हाथ नहीं लौटा । उस दिन मेरे साथ आपकी चरण-धलि भी थी। घर पाकर मैंने उसे स्वच्छ बर्तन में रख दिया और पत्नी से नियमित रूप से थोड़ी-थोड़ी करके इस पुण्य-प्रसाद को खाते रहने का आदेश दे दिया। मैंने इसे यह भी बता दिया कि यह एक महापुरुष की चरण-रेणु है। पत्नी ने श्रद्धा से इस क्रम को निभाया और इसी का यह परिणाम है कि आज यह बिल्कुल स्वस्थ होकर आपके सामने खड़ी है। सुनने वालों को थोड़ा विस्मय हुमा, पर श्रद्धा में अपरिमित शक्ति होती है, यह जान कर मैंने मन-ही-मन प्राचार्य चरणों में सिर झुका दिया । मैं नहीं जानता स्वास्थ्य-विज्ञान इस प्रसग को कैसे सुलझायेगा? पर इतना निश्चित है कि श्रद्धा से बड़े-बड़े अकल्प्य कार्य सुगम हो जाते है। प्राचार्यश्री ने वैसा स्थान पाया है, यह न केवल यही घटना बता रही है, अपितु इस प्रकार की अनेकों घटनाएं लिखी जा सकती हैं। हो सकता है, यह सब स्वाभाविक ही होता हो, पर यदि कोई व्यक्ति इतनी श्रद्धा अजित कर सकता है, उसे महापुरुष कहने में शब्दों का दुरुपयोग नहीं है, ऐमा मेरा विश्वास है। समान श्रदेय कुछ लोगों का विश्वास है कि श्रया अज्ञान की सहचारिणी है, पर प्राचार्यश्री ने अपने व्यक्तित्व-बल से जहाँ साधारण जन को श्रद्धा का अर्जन किया है, वहाँ देश-विदेश के शिक्षित मानस को भी अपनी ओर खींचा है। यह सच है कि ज्ञान-विज्ञान में माज बहुत तेजी से प्रगति हो रही है और इस युग में किसी को पुरानी बातें नहीं सुहाती हैं, पर रुचि और मरुचि के प्रश्न को मेरे विचार से नये और पुराने के साथ नहीं जोड़ना चाहिए; क्योंकि ज्यों-ज्यों नई बातें पुरानी होती जा रही हैं, त्यों-त्यों पुरानी बातें भी नवीनता धारण करती जा रही है। उसमें प्रावश्यकता केवल उचित माध्यम की है।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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