SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुशल विद्यार्थी मुनिश्री मीठालालजी वस्तुतः कुशल विद्यार्थी ही कुशल अध्यापक होता है और कुशल अध्यापक ही पौरों को प्रशिक्षित कर सकता है। जो बहुत अभिज्ञ होने पर भी जिज्ञासु भाव को मंजोये रखे और सत्य के अनुसन्धान में 'मम-तव' के भेद में न उलझे वही व्यक्ति कुशल विद्यार्थी एवं अध्यापक होता है। विद्यालय विशेष से उसका लाग-लगाव नहीं होता। वह जहाँ होता है, वही उसके लिए विद्यालय बन जाता है और निरवकाश उसका कार्य सुचारु रूप से चालू रहता है । मेरा यह कहना सम्भवतः लोगों को अचरज में डालेगा कि प्राचार्यश्री तुलमी एक विद्यार्थी हैं। मैं क्या कहूँ, वे स्वयं अपने को ऐसा मानते हैं और ऐसा बने रहने में ही उन्हें अपना और संसार का भावी विकास-दर्शन होता है । वे बहुत बार दूसरों को परामर्श भी यही देते हैं कि साहित्य की तह तक पहुँचने के लिए सदा प्रत्येक व्यक्ति को वयोवृद्ध और मान-वृद्ध हो जाने पर विद्यार्थी ही बना रहना चाहिए । ज्ञान की जब इयत्ता नहीं तब थोड़ा-सा ज्ञान पाकर अपने को इयत्ता-प्राप्त या सत्य के अन्तिम छोर तक पहुँचा मान लेना निरा अज्ञान है। वैचारिक दुराग्रह भी इसी स्थिति में पनपता है और वही व्यक्ति को सत्य मे बहुत परे ढकेल देता है । सत्य का प्राग्रह अवश्य उपादेय है, किन्तु सत्य वही नहीं है जो व्यक्ति ने जाना, माना या अपना लिया । तो सत्य को पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अथ से इनि तक विद्यार्थी बने रहना मावश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। सत्य को उपलब्ध करने की कुंजी विद्यार्थी दुराग्रही या स्वमताग्रही नहीं होता और जो दुराग्रही या स्वमताग्रही होता है, वह विद्यार्थी भी नही होता । विद्यार्थी में निकेवल सत्य का आग्रह होता है । वह अपने अभिमत को ही सत्य नहीं, किन्तु सत्य को ही अपना अभिमत मानता है। वह किसी भी अभिमत को अपना तब तक ही मानता है, जब तक उसे वह सत्य लगता है। असत्य लगने के पश्चात उसके परित्याग में उसे तनिक भी मंकोच नहीं होता। प्राचार्यश्री ने एक चिन्तन गोष्ठी में अपना चिन्तन नवनीत प्रस्तुत करते हुए कहा था-'हमें जो ममीचीन लगे उसे निःसंकोच भाव से प्रात्मसात् करना है । हम अनुकरण प्रिय नहीं, सत्य-प्रिय पोर मत्य-गवेषक हैं । सत्य पर आधारित बड़े-मे-बड़ा परिवर्तन हमारे लिए अपेक्षणीय है और प्रसन्य पर प्राधारित छोटे-से-छोटा परिवर्तन हमारे लिए उपेक्षणीय है, हेय है। कोरी अनुकरण-प्रियता में सत्य प्रोझल रहता है। नवीन चिन्तन के लिए अपने मस्तिष्क को सदा उन्मुक्त रखना चाहिए। किसी भी समय सत्य का कोई पहलू स्पष्ट हो सकता है जो प्रतीत में हमारे लिये अस्पष्ट रहा हो। चिन्तन का द्वार बन्द करने में विकास की इतिश्री हो जाती है। यह है सत्य को उपलब्ध करने की प्राचार्यश्री की कुंजी। प्राचार्यश्री प्राचीन परम्परा को प्रावश्यक और उचित महत्त्व प्रदान करते हैं, किन्तु प्राचीनता के साथ सत्य का गठ-बन्धन है और अर्वाचीनता के साथ नहीं, ऐसा उन्हें स्वीकार्य नहीं।। वे सर्वथा न प्राचीनता के समुत्थापक हैं और न सर्वथा अर्वाचीनता के सम्पोषक । वे प्राचीनता और प्रर्वाचीनता दोनों को तुल्य महत्व देते हैं, बशर्ते कि उसमें सचाई और औचित्य हो। सच्चाई से रिक्त न प्राचीनता उनके लिए उपादेय है और न अर्वाचीनता । सच्चाई प्राचीनता में भी हो सकती है और अर्वाचीनता में भी। प्राचीनता मात्र हेय नहीं और अर्वाचीनता मात्र उपादेय नहीं। दोनों में हेय ग्रंश भी है और उपादेय अंशभी। ये हैं उनके एक और एक दो जैसे
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy