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________________ चरैवेति चरैवेति की साकार प्रतिमा श्री प्रानन्द विद्यालंकार सहसम्पादक-नवभारत टाइम्स, दिल्ली 'चरैवेति' का प्रादि और सम्भवतः अन्तिम प्रयोग ऐतरेय ब्राह्मण के शुनःशेप उपाख्यान में हुआ है। उसमें इन्द्र के मुख से राजपुत्र रोहित को यह उपदेश दिलाया गया है कि पश्य सूर्यस्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन् । चरवेति चरैवेति । इसका अर्थ है---'हे रोहित ! तू सूर्य के श्रम को देख । वह चलते हुए कभी प्रालस्य नहीं करता। इसलिए तु चलता ही रह, चलता ही रह ।' यहाँ 'चलता ही रह' का निगूढार्थ है कि 'तू जीवन में निरन्तर श्रम करता रह ।' इन्द्र ने इस प्रकरण में सूर्य का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, उसमे मुन्दर और सत्य अन्य कोई उदाहरण नहीं हो सकता। इस समस्त ब्रह्माण्ड में मूर्य ही सम्भवतः एक ऐसा भासमान एवं विश्व-कल्याणकर पिण्ड है, जिमने सृष्टि के प्रारम्भ मे अपनी जिम ग्रादिअनन्त यात्रा का प्रारम्भ किया है, वह आज भी निरन्तर जारी है। इस ब्रह्माण्ड में गतिमान पिण्ड और भी हैं परन्तु जो गति पृथ्वी पर जीवन की जनक तथा प्राणिमात्र में प्राण की सर्जक है, उसका स्रोत गूर्य हो है । वह मूर्य कभी नहीं थकता। अपने अन्तहीन पथ पर अनालस-भाव से वह निरन्तर गतिमान है। श्रम का एक अतुलनीय प्रतीक है वह ! 'नवनि' अपने सम्पूर्ण रूप में उसी में माकार हा है । जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि सूर्य के लिए जो सत्य है, वह इस युग में इस पृथ्वी पर प्राचार्यश्री तुलसी के लिए भी गत्य है। जोधपुर-स्थित लाडनं नगर के एक मामान्य परिवार में जन्म-प्राप्त यह पुरूष शारीरिक दृष्टि मे भले ही सूर्य की तरह विशाल एवं भासमान न हो, परन्तु उमका जो अन्तर्मन और प्रखर बुद्धि है, उसकी तुलना सूर्य से सहज ही की जा सकती है। उसके मानमिक ज्योति-पिण्ड ने अपने वेतन्य-काल मे जनहितकारी किरणों का जो विकिरण प्रारम्भ किया है, उसका कोई अन्न नही है। वह अविगम जारी है। भौतिक शरीर जरा-मरण और कलान्ति-धर्मा है, किन्तु प्राचार्यश्री तुलमी ने अविगम थम मे यह सिद्ध कर दिया है कि काल-क्रम के अनुसार जरा-मरण उन्हे भले ही यात्ममाल कर ले, परन्तु क्लान्ति उन्हें यावज्जीवन स्पर्श नहीं करेगी । जीवन में यह कितनी बड़ी व श्रेष्ठ उपलब्धि है। कितना महान प्रादर्श है उस मानवसमाज के लिए, जिसका भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण भी इसमें ही निहित है--नानाधान्ताय श्रीरस्ति। भाग्य और श्रम दोनों ही मानव की अनमोल निधि हैं। इनमे से एक महज प्राप्त है और दूसरी यत्न-माध्य । भाग्य की महिमा मंसार में कितनी ही दृष्टिगोचर होती हो और भाग्यं फलित सर्वत्र पर मानव का कितना ही अखण्ड विश्वास हो, परन्तु श्रम की जो गरिमा है, उसकी तुलना उमसे नहीं की जा सकती। भाग्य तो परोपजीवी है और श्रम भाग्य का निर्माता । यह श्रम का ही प्रताप है, जिसमे धरती सस्यश्यामला होनी है और मनुज महिमा को प्राप्त होता है। संसार में जो कुछ मख-समृद्धि दृष्टिगोचर है, उसके पीछे यदि कोई सर्जक शक्ति है तो वह श्रम ही है। नितान्त वन्य जीवन से उन्नति और विकास के जिस स्वर्ण शिखर पर मानव प्राज खड़ा है, वह श्रम की महिमा का ही स्वयं-भापी प्रतीक है। जिस श्रम में इतनी शक्ति हो और जो गूर्य की तरह उस शक्ति का मागर हो, उसगे अधिक 'चरैवेति' की साकार प्रतिमा अन्य कौन हो सकता है ? प्राचार्यश्री तुलसी ने अपने अब तक के जीवन मे यह सिद्ध कर दिया है कि श्रम ही जीवन का मार है और श्रम में ही मानव की मृकिन निहित है।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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