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________________ प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन प्रन्थ [ प्रथम पास पर्याप्त सामग्री है। मैं इतना कुछ जानते हुए भी इस धर्म के गढ़ तत्त्वों को प्राज तक हृदयंगम नहीं कर सकी हूँ, क्योंकि इन्होंने अपने आपको इतना विशाल बना लिया है कि इनको जान लेना ही इनके आदर्शों को सटीक समझ लेना है, क्योंकि ये ही इनकी सत्यता के साकार प्रतीक हैं । वैसे तो सारे ही धर्म-पंथ बड़े कठिन और ऊबड़-खाबड़ हैं, परन्तु इस पंथ के पथिक तो खाँड़ की तीखी धार पर ही चलते हैं। गुरु के प्रति शिष्यों का पूर्ण प्रात्म-समर्पण और उनके व्यक्तित्व इस तरुण तपस्वी के आदेशों में इस तरह समा जाते हैं, जैसे बृहत् साम का स्तुति-पाठ इन्द्र में समा जाता है। त्याग की वेदी पर कमों का होम करने के बाद भी ये बड़े कमंट हैं। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक इनके क्षण बंधे हुए होते हैं। काल की अनन्तता में विश्वास करते हुए भी इनका पलार्धपल का हिसाब उसी तरह होता है, जमा अवसान-वेला में वणिक् की दुकान का। इनके जीवन की कोई मिसल या मसला दूसरे दिन के लिए नहीं छोड़ा जाता। सारे दिन की आलोचना करने के बाद इनका मानस-पटल उस गहरे जलाशय-सा मालम देता है, जिसकी तरंग विलीन हो गई हों-थाह हीन, शान्त ! इस धार्मिक फिरके के मंतों ने अपने-आपको आधुनिक प्रलोभन मे इतना ऊपर उठा रखा है कि ग्राज के अपूर्ण युग में ये अपनी कठिन मर्यादाओं से बँधे हुए जीते कैसे है ? त्याग और तप की प्रतिमूत्ति ये प्राचार्य और सूई की अनी से ऊंट को निकालने वाला इनका धर्म श्रेय और प्रेय का ज्ञान कराने में समर्थ है।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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