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________________ अध्याय ] प्रथमवर्जन और उसके पार [ ११३ अनैतिकता और भ्रष्टाचार दूसरे महायुद्ध की देन है और इन बुराइयों से सारे ही विश्व का मानव-समाज पीड़ित है। यह इनसे मुक्ति पाने के लिए बेचैन है । इससे भी कहीं अधिक बिभीषिका विश्व के मानव के सिर पर तीसरे सम्भावित महायुद्ध की काली घटामों के रूप में मंडरा रही है। तब ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कि प्राचार्यश्री ने अणुव्रत-आन्दोलन द्वारा मानव की इस पीड़ा व बेचैनी को ही प्रकट किया हो और उसको दूर करने के लिए एक सुनिश्चित अभियान शुरू किया हो, इसीलिए उसका जो विश्वव्यापी स्वागत हुमा, वह सर्वथा स्वाभाविक था। सबसे बड़ा प्राक्षेप इस विश्व-व्यापी स्वागत के बावजूद राजधानी के अनेक क्षेत्रों में अणुव्रत-आन्दोलन को सन्देह एवं पाशंका से देखा जाता रहा और उसको अविश्वास तथा विरोध की धनी धादियों में से गुजरना पड़ा। विरोधियों और मालोचकों का सबसे बड़ा ग्राक्षेप यह था कि प्राचार्यश्री एक पंथ-विशेष के प्राचार्य हैं और वह पंथ संकीर्ण साम्प्रदायिकता, अनूदारता तथा असहिष्णुता से प्रोत-प्रोत है। प्रान्दोलन का सूत्रपात उस सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए किया गया है और उस सम्प्रदाय के अनुयायी अपने प्राचार्य को पुजवाने के लिए उसमें लगे हुए हैं। यह भी कहा जाता था कि इस सम्प्रदाय की सारी व्यवस्था अधिनायकवाद पर आधारित है। उसके प्राचार्य उसके सर्वतन्त्र स्वतन्त्र अधिनायक हैं। वर्तमान प्रजातन्त्र-युग में अधिनायकवाद पर प्राश्रित आन्दोलन बड़ा खतरनाक है। इसी प्रकार के तरह-तरह के प्रारोप व प्राक्षेप आन्दोलन पर किये जाते थे। तेरापंथी सम्प्रदाय की मान्यताओं व मर्यादायों के सम्बन्ध में संकुचित व संकीर्ण साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से विचार व विरोध करने वाले इसी पक्षपातपूर्ण चश्मे से प्रणवत-अान्दोलन को देखते थे और उस पर मनमाने पारोप व आक्षेप करने में तनिक भी संकोचन करते थे । तरह-तरह के हस्तपत्रक छाप कर बांटे गए और दीवारों पर बडेबड़े पोस्टर भी छाप कर चिपकाये गए। विरोध करने वालों ने भरसक विरोध किया और पान्दोलन को हानि पहुँचाने में कुछ भी कसर उठा न रखी। इस बवण्डर का जो प्रभाव पड़ा, उसको प्रकट करने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होना चाहिए। कुछ साथियों का यह विचार हुमा कि अणुव्रत-पान्दोलन का परिचय राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद को देकर उनकी सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए । उनका यह अनुमान था कि राष्ट्रपतिजी नैतिक नव-निर्माण के महत्व को अनुभव करने वाले महानुभाव हैं । उनको यदि इस नैतिक आन्दोलन का परिचय दिया गया तो अवश्य ही उनकी महानुभूति प्राप्त की जा सकेगी। श्रीमान मेठ मोहनलालजी कठौतिया के साथ मैं राष्ट्रपति-भवन गया और उनके निजी सचिव मे चर्चा-वार्ता हई, तो उसने स्पष्ट कह दिया कि यह प्रान्दोलन विशुद्ध रूप में साम्प्रदायिक है और ऐसे किसी साम्प्रदायिक प्रान्दोलन के लिए राष्ट्रपति की सहानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती। मैने अनुरोध किया कि राष्ट्रपतिजी से एक बार मिलने का अवसर तो पाप दें, परन्तु वे उसके लिए भी सहमत न हुए। यह एक ही उदाहरण पर्याप्त होना चाहिए। यह दिखाने के लिए कि प्राचार्यश्री को राजधानी में प्रारम्भिक दिनों में कमे विरोध, भ्रम, उदासीनता तथा प्रतिकल परिस्थितियों में प्रणवत-पान्दोल की नाव को खेना पड़ा। इसके विपरीत जिस धैर्य, संयम, साहस, उत्साह, विश्वास तथा निष्ठा से काम लिया गया, उसका परिचय इतने से ही मिल जाना चाहिए कि विरोधी प्रान्दोलन के उत्तर में एक भी हस्त-पत्रिका प्रकाशित नहीं की गई। एक भी वक्तव्य ममाचारपत्रों को नहीं दिया गया और किमी भी कार्यकर्ता ने अपने किसी भी व्याख्यान में उसका उल्लेख तक नहीं किया-प्रतिवाद करना तो बहुत दूर की बात थी। जबकि प्राचार्यश्री के प्रभाव, निरीक्षण और नियन्त्रण में इस अपूर्व धैर्य और अपार संयम से कार्यकर्ता आन्दोलन के प्रति अपने कर्तव्य-पालन में संलग्न थे, तब यह तो अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी कि पूज्यश्री के प्रवचनों में कभी कोई ऐसी चर्चा की जाती। अणुव्रत-सम्मेलन के अधिवेशन में भी कुछ विघ्न डालने का प्रयत्न किया गया, परन्तु सम्पूर्ण अधिवेशन में विरोधियों की बर्षा तक नहीं की गई और प्रतिरोष अथवा असन्तोष का एक शब्द भी नहीं कहा गया। पान्दोलन अपने मुनिश्चित मार्ग पर अन्याहत गति मे निरन्तर मागे बढ़ता गया।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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