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________________ नैतिक पुनरुत्थान के नये सन्देशवाहक श्री गोपालचन्द्र नियोगी सम्पावक-निक वसुमति, बंगला, कलकत्ता नई प्राशा का नया सन्देश मनुष्य का जीवन केवल खाने-पीने और मौज उड़ाने अथवा कष्ट और दुविधाएं झेलने के लिए ही नहीं है। वह उपन्यास के पृष्ठों की भाँति भी नहीं है। मनुष्य समाज का प्राणी है और समाज भी मानव प्राणियों से ही बना है। उसका जीवन सामाजिक जीवन है और सामाजिक वातावरण में उसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। साथ ही वह सामाजिक सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। मनप्य को केवल अधिकार ही प्राप्त नहीं है, उगे कूछ कर्तव्यों का पालन और दायित्वों का निर्वाह भी करना होता है। स्वभाव मे वह चेतन और सत्रिय प्राणी है और उसे तर्क शक्ति प्राप्त है। उसका पारिवारिक, सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक जीवन होता है और वह भिन्नभिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। अनिवार्यतः वह जीवन की ऐसी योजना बनाने का प्रयत्न करता है, जिससे उसके शरीर और मन की आवश्यकता पूरी हो सके गौर वह जीवन की यावश्यक समरयाओं को हल कर सके । किन्तु उसे मार्ग में अनेक रुकावटों का सामना करना पड़ता है, जो दुर्लध्य प्रतीत होती हैं। सामाजिदः परिस्थितियाँ ही ये समस्याए हैं। उन्होंने एक सुविधा भोगी वर्ग को जन्म दिया है जो प्रगति के फलों का उपभोग करता है। समाज सत्ता-प्रेम, मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार के दृढ़ पाश में जकड़ा हुआ है। फलस्वरूप बहुसंख्यक जन समाज घोर दुःख में जीवन बिता रहा है । कठोर परिश्रम करने पर भी अधिकतर लोग दो जून पेट भर कर रोटी नहीं खा सकते । विफलता और निराशा का अंधेरा उनके मानस पर छाया रहता है। वर्षों के गहरे चिन्तन के बाद आचार्यश्री तुलसी करोड़ों शोषितों और श्रमजीवियों के लिए नई प्राशा और मानव जाति के लिए नैतिक पुनरुत्थान का नया मन्देश लेकर अवतरित हुए है। प्राचार्यश्री तुलसी जैन धर्म के इवेताम्बर तेरापथ सम्प्रदाय के आध्यात्मिक प्राचार्य है। साधारणत: कहा जाता है कि जैन धर्म का सबसे पहले भगवान् महावीर ने प्रचार किया, जो भगवान बुद्ध के समकालीन थे। किन्तु अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि जैन धर्म भारत का अत्यन्त प्राचीन धर्म है, जिसकी जड़ पूर्व ऐतिहासिक काल हुई हैं। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व प्राचार्य भिक्षु ने जैन धर्म के तेरापंथ सम्प्रदाय की स्थापना की; जिसका अर्थ होता हैवह समुदाय जो तेरे (भगवान् के) पथ का अनुसरण करता है। प्राचार्यश्री तुलसी इस सम्प्रदाय के नवम गुरु अथवा प्राध्यास्मिक पथ प्रदर्शक हैं । केवल ग्यारह वर्ष की अल्प आयु में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और फिर ग्यारह वर्ष की प्राध्यात्मिक साधना के पश्चात् वे उस सम्प्रदाय के पूजनीय गुरुपद पर प्रासीन हुए। प्राचार्यश्री तुलसी का हृदय जनसाधारण के कष्टों को देख कर द्रवित हो गया। उनके प्रति असीम प्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया। उसका उद्देश्य उच्च नैतिक मानदण्ड को प्रोत्साहन देना और व्यक्ति को शुद्ध करना ही नहीं है, प्रत्युत जीवन के प्रत्येक पहलू में प्रवेश कर समाज की पुनर्रचना करना है। अणुव्रत जीवन का एक प्रकार और समाज को एक कल्पना है। प्रणवती बनने का अर्थ इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि मनुष्य भला और सच्चा मनुष्य बने ।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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