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________________ ९० शिक्षासमस्या। (२) जिस समय मन बढता रहता है उस समय उसके चारों ओर एक बड़ा भारी अवकाश रहना चाहिए। यह अवकाश विश्वप्रकृतिके बीच विशाल भावसे विचित्र भावसे और सुन्दर भावसे विराजमान है। किसी तरह साढ़े नव और दश बजेके भीतर अन्न निगलकर शिक्षा देनेकी मृगशालामें पहुंचकर हाजिरी देनेसे बच्चोंकी प्रकृति किसी भी तरह सुस्थभावसे विकसित नहीं हो सकती। शिक्षा दिवा- . लोसे घेरकर, दरवाजोंसे रुद्धकर, दरवान बिठाकर, दण्ड या सजासे कण्टकितकर, और घण्टाद्वारा सचेत करके कैसी विलक्षण बना दी गई है ! हाय ! मानवजीवनके आरम्भमें यह क्या निरानन्दकी सृष्टिकी जाती है ! बच्चे बीजगणित न सीखकर और इतिहासकी तारीखें कण्ठ न करके माताके गर्भसे जन्म लेते हैं, इसके लिए क्या ये बेचारे अपराधी है। मालूम होता है इसी अपराधके कारण इन हतभागियोंसे उनका आकाश वायु और उनका सारा आनन्द अवकाश छीनकर शिक्षा उनके लिए सब प्रकारसे शास्ति या दण्डरूप बना दी जाती है। परन्तु जरा सोचो तो सही कि बच्चे अशिक्षित अवस्थामें क्यों जन्म लेते हैं ? हमारी समझमें तो वे न-जाननेसें धीरे धीरे जाननेका आनन्द पावेंगे, इसीलिए अशिक्षित होते है। हम अपनी अस. मर्थता और बर्बरताके वश यदि ज्ञानशिक्षाको आनन्दजनक न बना सके, तो न सही, पर चेष्टा करके, जान बूझकर अतिशय निष्ठुरतापूर्वक निरपराधी बच्चोंके विद्यालयोंको कारागार (जेलखाने) तो न बना डालें ! बच्चोंकी शिक्षाको विश्वप्रकृतिके उदार रमणीय अवकाशमेंसे होकर उन्मेषित करना ही विधाताका अभिप्राय था-इस अभि
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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