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________________ दूसरे आचार्यने ही इसका सम्पादन किया है। ग्रंथके शब्दों और अर्थोपरसे, इस ग्रंथका बनानेवाला कोई मामूली, अदूरदर्शी और क्षुद्र हृदय व्यक्ति मालम होता है। और यह ग्रंथ १६ वीं शताब्दीके बाद १७ वीं शताब्दीके अन्तमे या उससे भी कुछ कालबाद, उस वक्त बनाया जाकर भगवान् उमास्वामीके नामसे प्रगट किया गया है जब कि तेरहपंथकी स्थापना हो चुकी थी और उसका प्राबल्य बढ़ रहा था। यह प्रथ क्यों बनाया गया है ? इसका सूक्ष्मविवेचन फिर किसी लेख द्वारा जरूरत होनेपर, प्रगट किया जायगा। परन्तु यहॉपर इतना .बतला देना जरूरी है कि इस ग्रंथमें पूजनका एक खास अध्याय है और प्रायः उसी अध्यायकी इस ग्रंथमें प्रधानता मालूम होती है। शायद इसीलिये हलायुधजीने, अपनी भाषाटीकाके अन्तमें, इस श्रावकाचारको “पूजाप्रकरण नाम श्रावकाचार" लिखा है। अन्तमें विद्वजनोंसे मेरा सविनय निवेदन है कि वे इस ग्रंथकी अच्छी तरहसे परीक्षा करके मेरे इस उपर्युक्त कथनकी जाँच करें और इस विषयमें उनकी जो सम्मति स्थिर होवे उससे, कृपाकर मुझे सूचित करनेकी उदारता दिखलाएँ। यदि परीक्षासे उन्हें भी यह ग्रंथ सूत्रकार भगवान् उमास्वामिका बनाया हुआ साबित न होवे तब उन्हे अपने उस परीक्षाफलकों सर्वसाधारणपर प्रगट करनेका यत्न करना चाहिये। और इस तरहपर अपने साधारण भाइयोंका भ्रम निवारण करते हुए प्राचीन आचार्योकी उस कीर्तिको संरक्षित रखनेमें सहायक होना चाहिये, जिसको कषायवश किसी समय कलंकित करनेका प्रयत्न किया गया है। आशा है कि विजन मेरे इस निवेदनपर अवश्य ध्यान देंगे और अपने कर्तव्यका पालन करेंगे। इत्यलंविशेषु। जातिसेवकजुगलकिशोर मुख्तार, देववन्द ।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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