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________________ प्रायको हम जितना ही व्यर्थ करते है उतना ही अधिक वह व्यर्थ होता है। मृगशालाकी दीवालें तोड़ डालो,-मातृगर्भके दश महीनोंमे बच्चे पण्डित नहीं हुए, इस अपराधपर उन बेचारोंको सपरिश्रम कारागारका दण्ड मत दो, उनपर दया करो। - इसीसे हम कहते है कि शिक्षाके लिए इस समय भी हमे वनोंका प्रयोजन है और गुरुगृह भी हमें चाहिए। वन हमारे सजीव निवासस्थान हैं और गुरु हमारे सहृदय शिक्षक हैं। आज भी हमें उन चनोमें और गुरुगृहोंमें अपने बालकोको ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक रखकर उनकी शिक्षा पूर्ण करनी होगी। कालसे हमारी अवस्थाओंमें चाहे जितने ही परिवर्तन क्यो न हुआ करें परन्तु इस शिक्षानियमकी उपयोगितामें कुछ भी कमी नहीं आ सकती, कारण यह नियम मानवचरित्रके चिरस्थायी सत्यके ऊपर प्रतिष्ठित है। __ अतएव, यदि हम आदर्श विद्यालय स्थापित करना चाहें तो हमें मनुष्योंकी वस्तीसे दूर, निर्जन स्थानमें, खुले हुए आकाश और विस्तृत भूमिपर झाड़ पेड़ों के बीच उनकी व्यवस्था करनी चाहिए। वहाँ अध्यापकगण एकान्तमें पठनपाठनमें नियुक्त रहेंगे और छात्रगण उस ज्ञानचर्चाके यज्ञक्षेत्रमें ही बढ़ा करेंगे। __यदि बन सके तो इस विद्यालयके साथ थोडीसी फसलकी जमीन भी रहनी चाहिए। इस जमीनसे विद्यालयके लिए प्रयोजनीय खाद्यसामग्री संग्रह की जायगी और छात्र खेतीके काममें सहायता करेंगे। दूध घी आदि चीजोंके लिये गाय भैंसें रहेंगी और छात्रोंको गोपालन करना होगा। जिस समय बालक पढ़ने लिखनेसे छुट्टी पावेंगे, उस विश्रामकालमें वे अपने हाथसे बाग लगायेंगे, झाड़ोंके चारों ओर खड्डे खोदेंगे, उनमे जल साँचेंगे और बागकी रक्षाके लिए बाढ़ लगावेंगे।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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