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________________ ५९ बुरी दुराशा हृदय बीच जो देती थी दुख । वह आशा बन लगी कल्पनाका देने सुख | ज्यों त्यों काटे आठ दिन, होलीका दिन आगया । गली गलीके गोलमें होलीका रंग छागया ॥ ( १८ ) उबटन सौरभ-सना बनाकर घना लगाया । फिर नहलाकर, बॉध पट्टियाँ, साफ बनाया ॥ वस्त्र इतरमें बसे हायसे फिर पहनाये । करके यों सिंगार सतीने सब सुख पाये || लक्खीकी थी पालकी आई लेने द्वारपर । भेज दिया पतिदेवको उसपर स्वयं सवारकर | ( १९ ) अतिथि- आगमन समाचार सुनकर उठ धाई । अगवानीको आप द्वारपर लक्खी आई ॥ मदरसे ले गई भवनके भीतर बाई । पैर पखारे प्रथम आरती फिर उतराई ॥ फल, गोरस, मिष्टान्न कुछ ब्राह्मणको अर्पण किया । और रसीली दृष्टिसे उनको सुखी बना दिया || ( २० ) आया फिर दो जगह भरा पानी पीनेका । एक स्वर्णका कलश, काम जिसपर मीनेका ॥ मिट्टीका भी वहीं दूसरा और पात्र था । जो जलका सामान्य एक आधार मात्र था ॥ ब्राह्मणको यह देखकर, मनमें कौतूहल हुआ । पूछा, यह क्यों, किस लिए, दो पात्रोंमें जल हुआ ? ||
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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