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________________ ५८ (१४) आँखे मिलते हाथ जोड़कर लक्खी बोली। " किसकी. तुम्हें तलाश ? किधरको इच्छा डोली ? जो चाहो सो देवि, यहाँपर मिल सकता है। नव आशामय मुकुल-मनोरथ खिल सकता है। खडे न होने योग्य है किन्तु राह यह पापकी । लक्खी बाई अति.अधम दासी हूँ मैं आपकी" || युक्तिपूर्ण यह उक्ति श्रवण कर ब्राह्मणबाला। बोली, " मैंने यहाँ ढंग सब देखा भाला ॥ पुण्य कार्यको पापपथ पर जो हो जाना। तो उसमें कुछ दोष नहीं ऋषियोंने माना । गुण-धर जीवन नीचसे पावें ऐसी चाहमें । यही सोचकर आज मैं आई हूँ इस राहमें " ॥ सुन सादर ले गई उसे घर लक्खी बाई । पतिव्रताने बात खुलासा सभी सुनाई ॥ चुप रहकर कुछ देर, सोचकर बाई बोली। "देखो देवी, आठ रोजमें होगी होली ॥ उस दिन ब्राह्मणदेवको दावत दूँगी भौनमें। दासी होकर करूंगी जौन कहेंगे तौन मैं "|| (१७) ब्राह्मणको जब मिला निमन्त्रण बाईजीका। विस्मित तकता रहा देरतक मुख पत्नीका ।।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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