SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२१) तब लक्खीने कहा, "बात यह है साधारण। जरा सोचिए, जान पडेगा इसका कारण ।। स्वर्ण-कलशमें भरा बर्फका ठंडा जल है। मिट्टीकेमें भरा हुआ गगाका जल है ॥ क्षणिक तृप्तिके बाद ही तृष्णा बढती एकसे । और मिटे सन्ताप सब ठंडक पड़ती एक से ।। (२२) आडम्बर है उधर, इधर गुण-गरिमा सोही । इनमेंसे जो रुचे ग्रहण करिए उसको ही"। सुनकर सोचे विप्र, ग्रहण गगाजल करना । जो न सुलभ, मन उसी तरफ क्यों चञ्चल करना। बोले-"बाईजी सुनो, मै ब्राह्मण हूँ जातिका । गंगाजलको छोडकर, पिऊँ न जल इस भॉतिका" ॥ (२३) तब होकर कुछ नम्र, दृष्टि अपनी थिर करके । बोली लक्खी विप्र ओर यो ही फिर करके ॥ "योग्य आपके देव, आपका यह विचार है। फिर गणिकाकी चाह हृदयमें किस प्रकार है ? स्वर्ण-कलशका बर्फ-जल मेरे मिलन-समान है। इस सु-वर्णकी चमकमें बड़े बड़ोंका ध्यान है । (२४) जैसे ठडी वर्फ तापको क्षणभर हरती। फिर न मिले, तो और प्यासको दूना करती।।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy