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________________ पीछे जब पड़ गई, लगी रोने वह बाला। हाथोंसें मुंह ढॉप विप्रने तब कह डाला ।। " मै पामर हूँ पातकी, किस मुंहसे प्यारी, कहूँ। लक्खी पर आसक्त हूँ—इसी हेतु दुःखित रहूँ॥ मुझको है यह विदित, रूपधन उसको प्यारा। मैं हूँ कोढी घृणित वना वैतरणी-धारा॥ कपड़ा देते लोग नाकमें देख मुझे सव। लक्खीवाई फिर दरिद्रको मिलनेकी कत्र ? किन्तु, नीच मन यह तदपि होता नहीं निरस्त है। लोक हेसाई तुच्छ कर अपनी धुनमें मस्त है "॥ (१२) पतिकी सुनकर बात सतीने सोचा दिलमे । " डालेंगी मैं हाथ, नाथ, नागिनके विलमें। इच्छा पूरी करे, जिस तरह वह हो पूरी। हूँ पतिव्रता तो न रहेगी वात अधूरी "॥ यों विचार कर ब्राह्मणी, बोली उस दम कुछ नहीं। पतिको सोया देखकर, चल दी फिर घरसे कहीं। लक्खी सन्ध्यासमय द्वारपर आजाती थी। होता था जो दुखी उसे घरमें लाती थी। जो वह मोंगे वही उसे देकर आदरसे। करती थी वह विदा नित्य ही अपने घरसे ।। देखा उसने एक दिन देवी सी कोई खडी। किसी प्रतीक्षामें अड़ी, चिन्तित सी है हो पड़ी।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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