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________________ करती थी सब काम सबेरे उठकर अपने । पतिके पैरों पास लगे फिर हरिको जपने ।। पतिकी ऑखें खुली देखकर लाती पानी । करती उन्हें प्रसन्न बोलकर मीठी बानी ॥ शौच कराकर प्रेमसे धोती थी सब अंगको । अपने हाथोंसे उन्हें घोट पिलाती भंगको।। (८) भोजन कर तैयार खिलाती अपने क । और सुलाती पलंग बिछाकर अति आदरसे ।। फिर करके सत्कार अतिथिका भोजन करती। तन मन धनसे आठ पहर पतिका दम भरती॥ एक अलौकिक तेजका परिचय मुखमें मिल रहा। दया शान्ति सन्तोप था ऑखों भीतर खिल रहा ।। स्वामीका मुख मलिन देखकर इतने पर भी। पतिव्रताने चैन न पाई फिर दम भर भी। बोली दोनों हाथ जोडकर-“बोलो प्यारे। चिन्तित सा है चित्त कौनसे दुखके मारे ॥ बारूँ तुमपर नाथ, मै, हँसते हँसते जान भी । पूर्ण करूँगी कामना, आप कहेंगे जो, अभी"॥ (१०) कई बार यों कहा, कबूला मगर न स्वामी । टाल दिया, 'कुछ नहीं प्रिये !' कह भरी न हामी ।।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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