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________________ १८२ में ही गर्भित है। जो केवल निश्चयका पोयक है वह इन विषयोंका वर्णन नहीं कर सकता। बनारसीदाजीने कोई नवीन मत चलाया था, उनके प्रन्यासे इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। युक्तिप्रबोधके कर्त्ताको छोडकर और कोई इस बातका कहनेवाला नहीं है | आगरेमें वनारसीदासजीके पीछे दिगम्बरसम्प्रदायके अनेक ग्रन्थकर्ता हुए है जिन्होंने उनका नाम बडे आदरसे लिया है। यदि उनका कोई नवीन मत होता और उसकी परम्परा कॅवरपाल आदिसे चली होती, तो यह कभी सभव न था कि दूसरे प्रन्थकर्ता जो कि अपने सम्प्रदायके कट्टर श्रद्धालु थे, वनासीदासजीकी प्रशसा करते । बनारसीदासजीके अन्योका प्रचार भी आधिकतासे न होता। उनका नाटकसमयसार तो ऐसा अपूर्व प्रन्य है कि उसे जैनोंके तीनों सम्प्रदाय ही नहीं अजैन लोग भी पढकर अपना कल्याण करते हैं। दूसरा आक्षेप यह है कि 'बनारसीदास न तो दिगम्बरी ये और न श्वेताम्बरी-उन्होने दोनोंका एक खिचडा बनाया था। यह ठीक है कि वनारसीदास श्रीमाल वैश्य ये, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उनका जन्म हुआ था और खरतरगच्छीय यति भानुचन्द्र उनके गुरु ये; परन्तु पीछे दिगम्बर सम्प्रदायके ही अनुयायी हो गये थे ऐसा उनकी रचनासे स्पष्ट मालूम होता है। साधुवन्दना नामक कवितामे उन्होंने मुनियोंके अहाईस मूल गुणोंका वर्णन किया है और उसमे मुनिके लिए वस्त्रोंका त्याग करना या दिगम्बर रहना आवश्यक बतलाया है । इसके सिवा उत्तम कुलके श्रावकके यहाँ भोजन करना उचित बतलाया है। ये दोनों बातें श्वेताम्बर सम्प्रदायसे विरुद्ध हैं लोकलाजविगलित भयहीन, विषयवासनारहित अदीन । - नगन दिगम्बर मुद्राधार, सो मुनिराज जगत सुखकार ॥२८
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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