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________________ हारको आवश्यक समझता हूँ? नीचे लिखे पद्योंसे भी मालूम होता है कि वे व्यवहारके उच्छेदक नहीं थे: जाकी भगति प्रभावसों, कीनों ग्रन्थ निवाहि । जिन प्रतिमा जिन सारिखी, नमै बनारसि ताहि ॥७३॥ जौली ग्यानको उदोत तौलों नहिं बंध होत, ___ वरतै मिथ्यात तब नानाबंध होहि है। ऐसौ भेद सुनिकै लग्यौ तू विषय भोगनिसो, जोगनिसौं उदिमकी रीतिते विछोहि है। सुनि भैया संत तू कहै मैं समकितवंत, __ यह तो पकंत परमेसरकी दोहि है। विपयसौं विमुख होहि अनुभवदसा अरोहि, __ मोखसुख टोहि तोहि ऐसी मति सोहि है ॥५-१६ बंध चढ़ावें अंध है, ते आलसी अजान । मुकति हेतु करनी करें, ते नर उद्यमवान ॥ विवहार दिष्टिसौं विलौकति चंध्यौ सौ दसै, निहचै निहारत न बांध्यो इन फिन ही। एक पच्छ वंध्यौ एक पच्छसो अवंध सदा, दोऊ पच्छ अपने अनादि घरे इन ही ॥ कोऊ कहै समल विमलरूप कह कोऊ, चिदानंद तैसोई वखान्यौ जैसी जिन ही। चंध्यौ मानै खुल्यौ मान दुहूं नैको भेद जाने, सोई ग्यानवंत जीव तत्व पायौ तिन ही ॥४-२४ इसके सिवाय बनारसीविलास और नाटकसमयसार इन दोनों ही ग्रन्थोंमें जिनपूजा, प्रतिमापूजा, वाईस अभक्ष्य, ग्यारह प्रतिमा, तप, दान, नौधाभाक्ति, आदिका सुन्दर वर्णन है और ये सब विषय व्यवहार
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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