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________________ १८३ - उत्तमकुल श्रावक संचार, तासु गेह प्रासुक आहार। भुजै दोष छियालिस टाल, सो मुनि बंदी सुरत सँभाल ॥११ एक जगह वस्त्रसहित प्रतिमाका निषेध करते हुए लिखा है: पटभूषन पहरे रहै प्रतिमा जो कोई। सो गृहस्थ मायामयी, मुनिराज न होई ॥२ जाके तिय संगत नहीं, नहिं वसन न भूषन । सो छवि है सरवग्यकी, निर्मल निर्दूपन ॥३ -बनारसीविलास, पृष्ठ २३४ और भी, नाटकसमयसारमें अठारह दोपोंका वर्णन करते हुए केवलीको भूखप्यासरहित बतलाया है, मक्खनको अभक्ष्य बतलाया है और स्थविरकल्प जिनकल्पके वर्णनमें लिखा है- 'थविरकलपी जिनकलपी दुबिध मुनि, दोऊ बनवासी दोऊ नगन रहत है।" ये सब बातें श्वेताम्बर मानतासे विरुद्ध हैं। किसी नये या मिश्रित मतके स्थापित करनेको चे बुरा समझते थे, ऐसे पुरुषको उन्होंने स्वयं ही विपरीत मिथ्यादृष्टि कहा है: ग्रंथ उकत पथ उथपि जो, थापै कुमत सुकीय। सुजस हेत गुरुता गहै, सो विपरीती जीय ॥ -समयसार । तीसरा आक्षेप यह है कि उन्होंने दिगम्बर पुराणोंकी मानता छोड़ दी थी। परन्तु युक्तिप्रबोधके लेखको छोड़कर इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। विरुद्ध इसके दो चार रचनाओंसे यही सिद्ध होता है कि वे पुराणोको मानते थे । वनारसीविलासमें 'प्रेसठ शलाका पुरुपोंकी नामावली,' 'नवसेना विधान,' वेदनिर्णय पंचासिका, आदि कवितायें पुराणोंके अनुसार ही लिखी गई हैं। एक कवितामे जुगलियोके धर्मका भी वर्णन किया गया है। परुषको उन्होंने स्वभाव जो, थापै कुमत जाय ।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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