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________________ . प्रकीर्णक । woman पद्मावतीकी स्तुति। अमृतध्वनि-त्रिभंगी। दरसत पद्मावति, दृगसुख पावति, मन हर्षावति, अति भारी | मंगलमुदमंडित, विधन विहंडित, सुबुधि उमंडित, हितकारी ॥ * सेवक सुखदायनि, उदय सहायनि, सुगुन रसायनि, मन आनी। वृन्दावन वंदै, अहित निकन्दै, नित आनन्दै, सुखदानी ॥ * दानी प्रन सुन, जानी निजमन, ठानी थुति नुत । सानी तनमन, आनी गुनगन, जानी हितजुत ।। मेरो दुखहर, दीजै सुखवर, माता हरषत । गाता परसत, साता सरसत, माता दरसत ॥ मत्तगयन्द । जानत वेद पुरान विधान, प्रधाननमें अगवान अतीको। । लौकिक रीतिविर्षे बुधिवान, जहानमें जासु प्रतीति व्रतीको ॥ जो निज आतमरूप न जानत, शुद्ध सुभाव गहै न जतीको।। तो कविवृन्द कहो तिहिंको, वह एक रती विन एक रतीको माधवी। * अतिरूप अनूप रतीपतिते, न सचीपतित अनुभूति घटी है। | कविवृन्द दशौं दिशि कीरतिकी,मनों पूरनचन्द प्रमाप्रगटी है। १अमृतध्वनिकी दोहाके साथ बनानेकी परिपाटी है । परन्तु अमृतध्वनिका त्रिमगीके साथ सयोग अबतक कहीं नहीं देखा गया । कविवर। वृन्दावनजीका यह नवीन ही प्रयत्न है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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