SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकीर्णक। ६ केवलज्ञान भयो तब प्रभुको, इंद्रसहित सुर आयो। समवसरन रचना भइ तब ही, देखत पाप नसायो।प्रभू०॥५॥ कमठ आय शिरनाय प्रभूको, निज अपराध छिमायो। त्रिभुवन जनहितहेत तहाँ प्रभु. परमधरम दरसायो॥ प्रभू०६ ॥ *द्वादश सभा श्रवन करि सो धुनि, निज आतमनिधि पायो । प्रभु विहार करि भविकवृंदहित, शिवमग प्रगट दिखायो।प्रभू आठों करम नाशि पारसप्रभु, आठोंगुन निज पायो। देवी नमत समेदाचलतें, जिन अविचलपद पायो ॥ प्रभू० ८ ॥ (१४) प्रकीर्णक। ८ श्रीरविसेनाचार्यकी स्तुति। माधवी । रविसे रविसेन अचारज है, भविवारिजके विकसावनहारे। * जिन पद्मपुरान वखान-कियो, भवसागरतें जगजंतु उधारे ॥ * सियरामकथा सु जथारथ भाषि, मिथ्यातसमूह समस्त विदारे । * मविवृन्द विथा अबक्यों न हरो, गुरुदेव तुम्हीं ममप्रान अधारे॥ २ श्रीजिनसेनाचार्यस्तुति । । भगवजिनसेन कविंद नमों, जिन आदिजिनिंदके छंद सुधारे।* प्रथमानुसुवेद निवेदनमें, जिनको परधान प्रमान उचारे ॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy