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________________ PRAKASHANKAR वृन्दावनविलास उग्रसेनकी लाड़ली, सती शीलवतधार । * देवीवृंद सदा नमें, एकाभव अवतार ॥ मोहि० ॥ ३॥ ॥ विपुलाचलपर जिनवर आये, सुनत श्रवण नृपश्रेणिक धाये। " । समवसरन सुरधनद बनाये, जासु रुचिरता त्रिभुवन छाये ॥1 द्वादश सभा जहाँ दरसाये, तामधि आप जिनेश सुहाये।। * जातविरोध त्याग पशु आये, जिनपद सेवत प्रीत बढाये ॥ इंद्र जजत शत मोद उपाये, हरखि हरखि गुन गान कराये ।। * जिनधुनि मनहुँ मेघ गरजाये, सब जिय निजभाषा लखि पाये ! . गौतमगनधर अरथ सुनाये, धर्म श्रवणकरि पाप नशाये।। । श्रेणिक सोलह भावन भाये, प्रकृतितीर्थकर बंध कराये ॥ * देवीदास चरन लव लाये, कर जुग जोर नमत शिरनाये ।। हम प्रभुके शरनागत आये, राखि लेहु प्रभु मोहि अपनाये ॥ प्रभूपर कमठ कोप करि आयो । प्रभूपर० ॥ टेक ॥ । पूरववैर विचारि अधम वह, विपुल उपल वरसायो । भूत प्रेत वेताल व्याल विकराल महादरसायो॥ प्रभूपर०॥१॥ घनघमंड ब्रहमंड मंडि जह, जलअखंड झर लायो। पारस मेरुसमान ध्यानमें, मगन न कछु दुख पायो |प्र०२॥ 1 पदमावति धरनेसुरको तव, आसन सहज चलायो। * तबहि आन पदमावति प्रभुको, निज शिर धरि गुन गायो। धरनिदर फणिमंडप कीनो, सब उपसर्ग नसायो ॥ प्रभू० ॥४॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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