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________________ गृन्दावनपिलास तुव प्रसाद सुरसम सुख भोगे, अब कछु वांछा नाही। अब तप धरि सो जतन करों जिमि, नारी लिंग नसाहीं॥रघु०२१ यो कहि सीयसती तपधागे, शुद्धभाव उमगाहीं। अच्युतवर्गविषै प्रतेन्द्रपद, पायो संशय नाहीं ॥ रघु० ॥३॥ भविक वृंदको गरनसहायी, वेद पुरान कहाहीं। देवीको भवसागर तारो, तुम गुनगान कराहीं ॥ रघु० ॥४॥ टे क जिनेन्द्रजन्माभिषेक। प्रभूपर इंद्र कला भरि लायो। शैलराजपर सजि समाज सब, जनमसमय नहवायो क्षीरोदक भरि कनककुंभमें, हाथोंहाथ सुर लायो। * मंत्रसहित सो कलश सचीपति, प्रभुगिर धार ढरायो।प्रभू०॥ अघघघ भभ भभ धध धध धधधध, धुनि दशहूं दिशि छायो। साढ़े बारह कोड़ जातिके, वाजन देव वजायो ॥ प्र० ॥ २॥ सचि रचि रचि शृंगार संवारत, सो नहिं जात बतायो। * भूषन वसन अनूपम सो सनि, हरषित नाच रचायो ॥०॥३. पग नूपुर झननन नन वाजत, तननन तान उठायो । घननननन घंटा घन नादत, ध्रुगत ध्रुगत गत छायो ॥ प्र०४ * द्रिमद्विमदिम मृदंग गत वाजत, थेइ थेइ थेइ पग पायो। * सगृदि सरॅगि घोर सोर सुनि, भविक मोर विहसायो । ०५१ * तांडवनिरत सचीपति कीनों, निजमवको फल पायो। * निज नियोग करि तव सव सुर मिलि,प्रमुहि पिताघर ल्यायो प्र० ।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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