SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृन्दावनदेवीदास-पदावली। ५७ * मातुगोदमें सोपि प्रभू कहें, बहु विधि सुख उपजायो। प्रभुसेवाहित देव राखिकै, सुर निजधाम सिधायो । प्र०॥७॥ प्रमुके वयसमान सुर तन परि, सेवा करत सहायो। देवीदास वृंद जिनवरको, जनमकल्यानक गायो॥०॥८॥ | दीनको दयाल देव दूसरो न कोई। *तुम सरवज्ञ उदार दयानिधि तुमही हित होई ॥ टेक ॥ * ब्रह्माजीने वेद बनायो, यों भाषै विसनोई । I हिंसातें तहँ सुरग बतावें, ऐसी गतिमति गोई । दीन० ॥१॥ विष्णु दशों अवतार धारकें, कीरत कारन जोई। । * दानव मारे देव उवारे, जा विधि महिमा होई । दीन० ॥२ रुद्र करै संहार कोपकरि, जगमें वचै न कोई। । नंगधरंग फिरै अरधंगी, भंगी भुंगी भोई ॥ दीन० ॥ ३ ॥ *बौद्ध कहै छिनमंगुर चेतन, प्रौव्य वस्तु नहिं कोई। * नित्यरूप जह वस्तु नहीं तहँ, मुक्ति कौनकी होई ॥ दीन०॥ * वेदांती यों कहें एक ही, शुद्ध ब्रह्म वह होई । जड़ माया उपजाय आप ही, फॅसत फजीहत होई ॥दीन०५॥ 'इह परलोक न पुण्य पाप है, जड़ते चेतन होई । चारवाक नास्तिकयों भारी, निजनिधि तिन नहिं जोई ।।दीन०६॥ राग द्वेष मद मोह कामके, ये किंकर सब कोई । इनतें मुक्ति मिलैगी कैसें, देखो घटमें टोई ॥ दीन० ॥ ७॥ जाके रागादिक मल नाहीं, शुद्ध निरंजन सोई। आप तरै औरनको तारै, धरम जहाज सॅजोई ।। दीन० ॥८॥ % 3D
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy