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________________ RRRRRRRRRENSE वृन्दावनदेवीदास-पदावली। M www वृन्दावन देवीदास-पदावली। *वानी काहे न खिरी, वीर जिनेसुर० । श्रीमन्धर ढिग जाय सचीपति, पूछत भगत भरी ।। टेक ॥ तब जिनराज वचन यो उचरी (१), सुनि उर धारि हरी। *गौतम विप्र होय गनधर तब, वरष अमिय झरी ॥ यह सुनि इंद्र जाय गौतमदिग, छलकर वाद करी। * वीरप्रभूढिग चल्यो विप्र तब, उर बहु गर्व घरी॥ वानी॥२ मानर्थम अवलोकत द्विजको, मिथ्यामान गरी।। दिच्छा धरत भयो मनपरजय, गनधरपद सुवरी ॥ वानी०३ . *ताको निमित पाय ततखिन तब, श्रीजिनधुनि उचरी। । जाके सुनत मोह भ्रम भाजत, पावत शिवनगरी ॥ वानी०४ सो वानी जयवंत आज लगि, राजत जोत मरी। * देवीवृंद नमत नित ताको, जमकी त्रास टरी ॥ वानी० ॥५ - अब न वसों गृहमाही रघुवर!, अब न वसों गृहमाहीं ॥टेक ॥1 जन अपवाद मिटावन कारन, पैठी पावक ठॉहीं। धरमप्रभाव भयो सो सरवर, सब जग देखत आहीं ॥ रघु०११ १५ देवीदास नामके एक कवि बनारसमें कविवर वृन्दावनजी के स*मयमें ही हो गये हैं । उक्त दोनों कवियोंका परस्पर सविशेष सौहार्द * था। इसीलिये जान पडता है, दोनोंने मिलकर अथवा आशय विचार कर ये पद बनाये होंगे। कोई २ पद केवल देवीदासके भी है।रभागे दो या तीन अक्षरोंकी जगहका कागज फट जानेसे पाठ पूरा नहीं किया जा सका।।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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