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________________ ११८ www mraramsaneKKHAR वृन्दावनविलास * आदि अन्त अविरोधयथारथ, जो भावत सब वस्तु विधाननाजै०॥ जो अनादि अज्ञान निवारत, जासमान हितहेत न आनन जैन 1 मिथ्या-मत-मतंग-गंजनको, जोशासन सांचो पंचाननाजैन ॥४॥ जाको सुजस तिहूंजगव्यापत, इन्द्र अलापत तननन तानन जै०१ भविकवृंदको सो अधार है, जो सब निगमागमको आनन। जैन , तेरी वनत वनत वन जाई, जिनसों लागा रहुरे भाई। टेका, *जाको ज्ञान चराचर व्यापक, दोष न जामें कोई। । * आप तरें औरनको तार, सोई अधमल धोई । जिन ॥१॥ जाको वचन विरोधरहित सुनि, भविक मोह भ्रम त्यागे। । जैसे सुनत नादके हरिको, कुमति मतंगज भागै । जिन०॥॥ देखो कोल, नकुल, बंदर, हरि, सांची लगन लगाई। सो सव जगसुख भोगि विलसिकै, लई मुकति ठकुराई।जिन०५ * बूंद बूंद जल परत मेघतें, नदी महा उमगाई। त्योंही सुकृत समर्जन करतें, वेडा पार लगाई । जिन०॥४॥ नरपरजाय पाय कुल उत्तम, अव न ढील कर भाई। प्रीतिसहित जिनचंदवृंद भज, ज्यों भवथिति घट जाई । जि०। राग कजरी। जिनखामी शिवगामी मेरी विपति हरो । जिन० ॥ टेक ॥ है अब आइके तुमारी शरनागत परो। है प्रभु मेरी ओर हेरो मेरो कारज करो ॥ १॥ R - 2 - ----
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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