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________________ ४७ पदावली | सहि न जात त्रयताप तरलगर, हे दयाल गुनमाल भालवर । भविक वृंद तव शरनचरन तर, भो कृपालप्रतिपाल क्षमाकर। क्यों ० ५ राग खेमटा । बनि आई सकल सुरनार, पारस पूजनको ॥ टेक ॥ काशीदेश बनारसि नगरी, अश्वसेनदरबार || पारस० ॥ १ ॥ इन्द्र सची मिलि करत आरती, संचत पुण्यभँडार ||पारस ० ॥२ केई ताल मृदंग बजावत, केई करत जैकार ॥ पारस० ॥ ३ ॥ केई भाव बतावत गावत, जिनगुणवृंद अपार || पारस ० ॥ ४ ॥ ६ जाऊं कहां तजि चरन तिहारे, हे जिनवर मेरे प्रानअधारे। टेक ॥ तुम्हरो विरद विदित संसारे, अशरनशरन हरन भवभारे । यात शरन चरनकी आयो, पाहि पाहि प्रणतारतहारे ॥ जाऊं ० ॥ १ पावकर्ते जल सुमन सांपतें, निरधनसों कीनों धनधारे । और अनंत जंतकी बाधा, तव किहि विधि तुम तुरित विडारे ॥ जा ० मेरी बार अबार करत हो, हा हा नाथ ! किन सुनत पुकारे । मोहि एक अवलंब आपको, सो तुम देखत दृष्टि पसारे ॥ जाऊं ० ॥ ३ अब तौ तारे ही बनि ऐहै, ही बनि ऐहै, बनै नाथ नहिं विरद विसारे । भविकवृंदकी पीर निवारो, हो मुदमंगलके करतारे ॥ जाऊं ० ॥ ४ ॥ जैनपुरान सुनो भवि कानन । जैन० । टेक ॥ जो अनादि सर्वज्ञ निरूपित, अन्य रचित निरग्रंथ प्रधानन । जैन
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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