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________________ कल्याणकल्पदुम । जो तुमको धरि नेह जनै, भवि दर्वित भावित भक्त भरेरी ॥ देत तिन्है अविनश्वर आमॅद, हो तुम दीनदयाल बड़ेरी। मोहि न है अवलंबन दुसरो. श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥३०॥ श्रीयुतखामि समन्तसुभद्रसों, भूप कियो हठ वंदनकेरी। । श्रीगुरु पाठ स्वयंभू रच्यो, पद गर्वित स्यादरु वाद घनेरी ॥ * शंभुकी पिंडिका फोरि फुरी, दुति चन्द जिनंद सुबंदि तवेरी । * मोहिनही अवलंब है दूसरो, श्रीपतिजी पतराखहु मेरी ॥३१॥ । श्रीकुमुदेन्दु महा गुनवृंद, मुनिंदसों वाद पयो जिहिं बेरी। आनंदमंदिर पाठ रच्यो गुरु, भक्ति भरी बहु जुक्ति धरेरी ॥ शासन जच्छ प्रतच्छ तहॉ, प्रगटी प्रतिमा प्रभु पास तबेरी ।। * मोपरग्वेग करो करुना अव, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥३२॥ *श्रीमत मानसुतुंग मुनिंदको, भूपति वंद कियो भरि वेरी। श्री भगतामर पाठ रच्यो तह, आनि चक्रेश्वरी मोद धरेरी॥ *बंधन काट दियो ततकार, भयो जयकार वजी सुरमेरी। * मोहि नहीं अवलंब है दूसरो, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥३३॥ * मंगलमूरत श्रीगुरु वादि,-सुराजकों कोढ भयो जिहिं बेरी। *सो तुमसों चित लाय कियो, थुति नामसु एकियभाव धरेरी॥ । होय सहाय ततच्छिन ही, तन कीन सुवर्ण लगी नहिं देरी। * मोहि पुकारत बार भई अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥३४॥ * शेठके नंदनको जव ही, अहि जान डस्यो विष भूरि चढ़ेरी।। * औषध मंत्र उपाय तजी, धरि धीर तुम्हें वह पीर टरेरी ॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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