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________________ 1 2 - - -- २७॥ - -- - . कल्याणकल्पद्रुम । * शीलविभूषित सिंहिकाको, जब ही नघुशेष कलेश दियेरी।। छीन लियो पटरानियको पद, भूप भये ज्वरग्रस्त तबेरी॥ ध्याय तुम्हें जल दीन्हों लगाय, तुरंत तबै नृपताप टरेरी।। क्यों न हरो हमरी यह आपति,श्रीपतिजीपत राखहु मेरी ॥९॥ * द्रोपदी शीलसुरूपनिधानको, धातुकि भूपतिने जब हेरी।। मंत्र अराधि उपाधि कियो हरि, लेय गयो दुख दैन लगेरी॥ नाम अराधत ही तब ही हरि, जाय समस्त कलेश निवेरी ।। क्यों न हरो हमरी यह आपति, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी १०५ झूठ कलंक लगाय सतीकहँ, राय गिराय दियो पदसेरी।। * फाटक बंद भयो पुरको न, खुलै तहँ कोटि उपाय कियेरी ॥ ध्याय तुम्हें जल चालनिमें भरि, सीच्यो सती तब द्वार खुलेरी। क्यों न सुनो हमरी विनती अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥ ११ * आदिकुमार भये अनगार, अपार महाव्रतमार भरेरी। । * याचत राज नमी विनमी जहँ, आप विराजत मौन धरेरी ॥ आप दियो धरनेंद्र तिन्हें, रजताचल राज उभैदिशिकेरी। मैं प्रभुको तजि जाऊ कहाँ ? अब श्रीपतिजी पतराखहु मेरी१२ आगविप जुगनाग जरंत, विलोकि तुरंत तिन्हें तिहिं बेरी ।। १ पास कुमार दियो नवकार, उवार दियो दुख दुर्गतिसेरी ॥ २ सो तत्काल भये धरनेश्वर. औ पदमावति पुण्य भरेरी। 1 मैं प्रभुकों तज जाऊं कहां अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥१३ ॥ 1 सेठसुदर्शन आनंदवर्पन, सम्यकसर्पन कर्षन कामा। ताहि तियावश भूप लगाय. फलंक निशंक जो गील ललामा
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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