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________________ १२६ वृन्दावनविलास श्री पवनंजयकी वनिताकहँ, सामु कलंक लगाय निकारी।। जाय बसी वन संयुतर्गर्म, भयो उपसर्ग तहाँ अति भारी॥ * नाम अराधत ही तब ही, शेरभाकृत देव कलेश निवारी ।। * क्यों न सुनो जनकी विनती, जनआरतमंजन हे त्रिपुरारी॥४ द्रोपदि चीर दुशासन खैचत, मध्यसमामहँ लाज न आई। भीषम कर्ण जुधिष्ठिर देखत, पारथसों न कछू बनि आई ॥ धारिक धीर पुकारत ही, तिहिं औसर चीर विशाल बढ़ाई ।। * क्यों न सुनो जनकी विनती, जनआरतमंजन हेजदुराई ॥५॥ सम्यकशीलविभूषनभूषित, सोमा सती रतितै अति रूपा । । । कुंभतै नाग निकासनको, पति तासों कयो जु सुशीलअनूपा ॥ *सो जपि नाम निकासत दाम, भयो अभिराम प्रसूनसरूपा । * आज विलंबको कारन कौन है, दीनदयाल त्रिलोकके भूपा ॥६॥ श्रीत्रिशला जिनकी जननी, तिनकी भगिनी लधु चंदना हेरी।। सम्यकशील सुरूपनिधानके, संकटमाहिं परी पग वेरी ॥ *वीर जिनेश गये तहँ आप, कटी दुखफंद रटी सुर भेरी। मैं अति आतुर टेरतु हौं, अब श्रीपतिजी पत राखहु मेरी| यानविर्षे सिरिपालि तिया लखि, सेठ कुवुद्धि धरी जिहेंबेरी।। शीलविनाशनको शठ सो, हठ कीन मलीन उपाय घनेरी ॥ * नारि पुकार सुनी मझधार, उवार लियो दुखदंद निवेरी। * मै शरनागत आनि पर्यो, अब श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥८॥ * १ गर्भसहित-गर्भवती । २ सिंहकृत । ३ माला।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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