SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ वृन्दावनविलास शूली चढ़ावत ध्यावत ही तिहि, दीन्हों सिंहासन श्रीअभिरामा।* * आज विलंबको कारन कौन है, आरतमंजन कीरतिधामा १४ ॥ श्रीमिथिलेशतिया जब ही, सुकुमार जनी सियसंयुत हेरी ।। * पूरब वैर विचार हो सुर, फेरि दया उपजी तिहँ बेरी ॥ । * भूषनभूषि दियो पधराय, सो राय भयो रजताचल केरी। *हों सरनागत आनि पयो अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी१५५ कौशलके पति रामकी वाम, हरी दशकंध कुबुद्ध धरेरी।। * होत भयो रन संकटमें, सुमियो बलिने प्रभुको तिहिं बेरी ॥ देव सुलोचन दीन्ह तिन्हें हरि, गारुड़वाहन शस्त्रधनेरी। क्यों न हरो हमरी यह आपति, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥१६॥ * राम तिया हरिके जब ही, नममें दशकन्धर जान लगेरी। * गृद्ध जटायुसों जुद्ध भयो, तलघात पात भयो तिहिं बेरी ॥ रामने ताहि दियो तुम नाम, लियो सुरधाम सो पुण्य भरेरी। * मै अति आतुर टेरतु हों अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥१७॥ जानकिकों हरिके दशकंधर, लंकविर्षे जब जाय धरेरी। * त्याग चतुर्विधि भोजन सो, जिननाम जप्यो करुनाकरकेरी॥ श्री हनुमंत सहाय करी तुव, धर्मप्रसाद कलेश हरेरी। *क्यों न हरो हमरी यह आपति, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी १८ ॥ माधवी। नृप वज्र सुकर्ण पुनीत अचर्ण, करी यह पर्ण सुनीगुरु गाथा। । जिननाथ तथा मुनिसाथ जथारथ,गाथ विना न नवैमम माथा
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy