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________________ कल्याणकल्पद्रुम । । हंसासनी जिनशासनी पद्मासनी माता । * भुज चार फल चारु दे पद्मावती माता ॥ २३ ॥ इति पद्मावतीस्तोत्र सम्पूर्ण ॥५॥ अथ भक्तभयभंजन कल्याणकल्पद्रुम जिनेन्द्रस्तुति लिख्यते। छन्द मत्तगयन्द । भूप अकंपनकी तनया जसु, नाम सुलोचना वेद उचारी। सो जयसंजुत जात चढ़ी, गज ग्राह गह्यो जब गंग मझारी ।। ध्यावत पादसरोरुहको, करुणा करके तिहिं वार उवारी। * क्यों न सुनोजनकी विनती, जनआरतमंजन हे सुखकारी ॥१॥ पावककुंड प्रचंड भयो, ब्रहमंड उमंडि रही जव ज्वाला। रामकी वाम सिया अमिराम, उठी तव ही जपि नामकी माला ॥ वारिजपाय पधारत ही, तिहिं वार कियो सर खच्छ विशाला * क्यों न सुनो जनकी विनती, जन-आरत-भंजन दीनदयाल||२॥ भीलवती सुविशुद्धमती वर, चक्रवती हरिपेनकी माता।। सौतने ताहि दियो जव संकट, चालि है मोरथ ब्रह्म विधाता ॥ कीन्ह सहाय ततच्छन राय. चलाय दियोरयजैन विख्याता। आज विलंबको कारन कौन है ! हे प्रणतारतभंजन ताता ॥३॥ पुरे दुरासे नाश करनेवाले।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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