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________________ पद्मावतीतोत्र। * मुखचंदको अमंद देख चंद हू थंभा। * छबि हेर हार हो रहा रंभाको अचंभा ।। गतीन सहित लाल तिलक भाल धरै है। * विकसित मुखारविंदसों आनंद भरै है। जिन० ॥१३॥ *जो आपको त्रिकाल लाल चालसों ध्यावै । * विकराल भूमिपाल उसे माल झुकावै ॥ जो प्रीतसों परतीतरूप रीत बढावै । * सो रिद्धि सिद्धि वृद्धि नवों निद्धिको पावै॥जिन०॥१४॥ जो दीपदानके विधानसे तुम्हें जपै। * सो पायके निधान तेजपुंजसो दिपै ॥ जो भेद मंत्रवेदमें निवेद किया है। o सो वाधके उपाध सिद्ध साध लिया है। जिन० ॥ १५ ॥ * धनधान्यका अर्थी है सो धनधान्यको पावै। संतानका अर्थी है सो संतान खिलावै ॥ निजराजका अर्थी है सो फिर राज लहावै । 1 पदभ्रष्ट सुपद पायके मनमोद बढ़ावै॥ जिन० ॥ १६ ॥ ग्रह कूर व्यंतराल व्याल जाल पूतना। . * तुव नामकी सुनि हाँक सौ भागे हैं भूतना ॥ कफ बात पित्त रक्त रोग शोग शाकिनी । । तुम नामतै डरी मरी परात डाकिनी॥ जिन० ॥ १७ ॥ भयभीतकी हरनी है तुही मातु भवानी । * उपसर्ग दुर्ग दावती दुर्गावती रानी ॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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