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________________ वृन्दावनविलास* वृषचंदनंद वृंदको उपसर्ग निवारो। __संसारविषमखारतें प्रभु पार उतारो ॥ हो० ॥ २६ ॥ इति संकटहरणजिनस्तुतिः समाप्ता ॥ ४॥ : - अथ पद्मावतीस्तोत्र लिख्यते। जिनशासनी हंसासनी पद्मासनी माता ॥ भुजचार फल चारु दे पद्मावती माता ॥ टेक ॥ जब पार्श्वनाथजीने शुकलध्यान अरंमा । * कमठेशने उपसर्ग तव किया था अचंभा ॥ निजनाथ सहित आयके सहाय किया है। जिननाथ को निजमाथपै चढ़ाय लिया है । जिन ॥१॥ १ आगे अपने इष्टदेव जो श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र तिनसे जय कमटके जीवने तप करते महा उपसर्ग प्रारभ्या, तासमय चार प्रकारके जो देवनिके । इन्द्र हैं तथा देवी हैं ते सर्व भगवानके दास है परन्नु काहूने सहाय नहि। किया केवल धरणेन्द्र और पद्मावतीजीने सहाय किया धरणेन्द्र तो पण * मडलते प्रभुके शीसपर छाया किया और पभावतीने स्वामीको अपने मस्तकपर चढ़ाय लिया सर्व उपसर्ग दूर किया सो हमारे इष्ट परगपूरयः । * की सहाय कीनी इह जानि हमको अति प्रिय लाग है-अद्यापि जहा तह धर्मकी पक्ष भले कर है और पूर्वाचार्यनिको भी जब परवादीनसों यार परा है तहां कुछ प्रयोजन धर्मोद्योत करने हेत इनों मंद धमांनुग. *गका किया है तो हमको भी प्रिय लागी है तातें बालयदि मनुगार म कीर्तन करों हों जिनो रुचि होय ते पटियो। (यह वारय मानने! तोत्रकी आदिमें स्वहलसे लिखे है।)
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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