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________________ ' गुरुस्तुतिः। दोसन्ध तीनसन्ध चारसन्ध पांचसन्ध । है पटसन्ध सातसन्धलों गुरू रचा प्रवन्ध ॥ | गुरु देवनन्दिने किया जिनेन्द्रव्याकरन । 1 जिम्से हुआ परवादियोंके मानका हरन ॥ जैवन्त० ॥२२॥ गुरुदेवने रची है रुचिर जैनसंहिता। परनाश्रमादिकी क्रिया कह है संहिता ॥ विसुनंदि वीरनंदि यशोनन्दि संहिता । र इत्यादि बनी है दशों परकार संहिता ॥ जैवन्त० ॥२३॥ । परमेयकमलमारतंदके हुए कर्ता। ५. माणिक्यनंदि देव नयप्रमाणके भर्ता ।। जिवंत सिद्धसेन मुगुरु देव दिवाकर । जयादिमिद देवसिंह जति यशोधर ॥ जेवन्त ॥२॥ श्रीदत्त काणभिक्षु और पात्रकेशरी। 1. श्रीयनसूर मारामेन श्रीप्रभाकरी ।। श्रीजटापार वीरमन महामेन है। १ जयमेन शिरीपाल मुद्दो कामधेन हैं। पन्तः ॥२५॥ Samp : गुग्ग ः प्रम बनाया। Bf मनाम पार ना पागा ।। जिनमन गण महागन रना। it यानानe ment
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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